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निश्चय होता है और पर मनुष्यों को उपदेश दिया जाता है एवं जिसतरह अवधिज्ञानसे रूपी पदार्थोंका
निश्चय होता है उसी प्रकार विभंगज्ञान से भी होता है. इस प्रकार मतिज्ञान आदि तीनों सम्यग्ज्ञान एवं प्रत्यज्ञानादि तीनों मिथ्याज्ञानों की पदार्थों के ग्रहण करने में जब अव्यभिचारीरूपसे समानता है तब मतिज्ञान आदि तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं हो सकते इसलिए 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्र' इस सूत्र से जो उन्हें मिथ्याज्ञान बतलाया है वह ठीक नहीं। इस बातका समाधान सूत्रकार देते हैं
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२॥
उन्मत पुरुषके समान सत् असत्रूप पदार्थोंके विशेषका ज्ञान न होनेके कारण स्वेच्छारूप-यद्वा तद्वा जानने के कारण मति आदि तीन मिथ्याज्ञान हैं। अर्थात् जिसप्रकार शराबी पुरुष भार्याको माता और माताको भार्या समझता है यह उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है परन्तु किसी समय वह भार्याको भार्या और माताको माता कहता है तो भी उसका वह जानना सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता क्योंकि उसे भार्या और माता के भेदका यथार्थ ज्ञान नहीं उसीप्रकार मिथ्यादर्शन के उदयसे सत् और असत् पदार्थका यथार्थ ज्ञान न होने के कारण कुमति कुश्रुत और कुअवधिज्ञान भी मिथ्याज्ञान हैं ।
सच्छन्दस्यानेकार्थसंभवे विवक्षातः प्रशंसार्थग्रहणं ॥ १ ॥
' ऊपर 'सत' शब्द के अनेक अर्थ बतला आए हैं उनमें यहांपर प्रशंसार्थक सत् शब्दका ग्रहण है अर्थात् सत् शब्दका अर्थ प्रशस्त ज्ञान है और असत्का अप्रशस्त ज्ञान है । जिस तरह उन्माद दोष से इंद्रिय और बुद्धिके विक्षिप्त हो जाने से उन्मच पुरुषको विपरीत रूपसे पदार्थ भासमान होने लगते हैं। इसलिए गाय और घोडा के भेदका वा लोहा और सोनाके भेदका यथार्थ ज्ञान न होने के कारण स्वेच्छा -
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