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________________ RSS-40 + K ARINCIENTREECHAKREECHECICE कि आत्माका स्वतः ज्ञानपना इष्ट नहीं इसलिये ज्ञानत्वमें ज्ञानतोकी प्रतीतिकेलिये हम दूसरा ज्ञानसत्व धर्म मानेंगे 'ज्ञानत्वत्वमें ज्ञानताकी प्रतीतिके लिये अन्य ज्ञानवतत्व धर्म स्वीकार करेंगे इसी प्रकार है आगे भी धर्मों की कल्पना कर उसके पहिले पहिले धर्मों में ज्ञानताकी प्रतीति होती चली जायगी? सो भी ठीक नहीं इसतरह आत्मामें ज्ञानताकी प्रतीतिकेलिये समवाय संबंधसे ज्ञानगुणकी कल्पना, ६ ज्ञानगुणमें ज्ञानताकी प्रतीतिकेलिये ज्ञानस्वकी, ज्ञानत्वमें ज्ञानताको प्रतिकेलिये ज्ञानत्वत्वकी इत्यादि । अनंते अप्रामाणिक धर्मोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था दोष आवेगा । अनवस्था दोषके दूर करनेकेलिये है यदि ज्ञानत्वमें ज्ञानताकी प्रतीति स्वतः ही मानी जायगी तब भी जो यह प्रतिज्ञा है कि एक पदार्थका है ज्ञान दूसरे पदार्थको सहायतासे होता हैं जिसतरह आत्मामें ज्ञानताको प्रतीति ज्ञानगुणसे, ज्ञानगुणमें है ज्ञानत्वधर्मसे इत्यादि, वह नष्ट हो जायगी इसलिये जो वादी सर्वथा पदार्थों को सत् ही माननेवाले हैं ॐ असर नहीं मानते उनके मतमें जिसप्रकार अनवस्था और प्रतिज्ञाहानि दोष आते हैं उसीप्रकार ऊपर 8 लिखे अनुसार जब यहां भी उन दोषोंका उदय होता है तब उनकी निवृत्ति कोलिये अग्निमें उष्णता की ६ और आत्मामें ज्ञानताकी प्रतीति स्वतः ही स्वीकार करनी होगी तथा वह प्रतीति अभेद पक्षमें ही वन हूँ सकेगी, भेदपक्षमें नहीं, इसलिये आत्मा और ज्ञानादिकका कथंचित् अभेद संबंध ही मानना ठीक है। है और भी यह बात है तत्परिणामाभावात् ॥१४॥ - "दंडी पुरुषके साथ दंडका संयोग तो है परंतु दंड उसका परिणाम नहीं। दंड और दंडी दोनों ही ४ भिन्न भिन्न हैं इसलिये वहां पर दंडी यही व्यवहार होता है दंड व्यवहार नहीं । उसीप्रकार उष्णमें जो 12 16H SRISHCF1STROFROHARU
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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