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________________ त०रा० २२ € At | जायगी सो मानना ठीक नहीं। इसतरह मानने से अनवस्था दोष आवेगा क्योंकि अप्रमाणभूत अनेक पदार्थोंकी कल्पना करते चला जाना अनवस्था दोष है यहां पर भी अग्निमें उष्णपनाकी प्रतीतिके लिये समवाय संबंध से उष्ण गुणकी कल्पना, उष्ण गुणमें उष्णपने की प्रतीति के लिये उष्णत्वधर्मकी, उष्णत्वमें उसकी प्रतीति के लिये उष्णत्वत्व की कल्पना आदि अप्रमाणिक पदार्थों की कल्पना की गई है। अनवस्था दोषके दूर करनेके लिये यदि यह कहा जाय कि उष्णत्वधर्ममें उष्णपनाको प्रतीति स्वतः ही हो जायगी वहां पर उष्णपने की प्रतीति के लिये अन्य धर्मके कल्पनाकी आवश्यकता तो नहीं सो भी ठीक नही क्योंकि नैयायिक और वैशेषिकों की जो यह प्रतिज्ञा है कि जब कभी किसी पदार्थकी प्रतीति होती है तो वह दूसरे पदार्थ के द्वारा होती है जिस तरह अग्निमें उष्णपने की प्रतीति उष्ण गुणके संबंधसे, उष्णगुण में उष्णत्वधर्मसे इत्यादि वह छिन्न भिन्न हो जायगी । उसी प्रकार -- आत्मामें ज्ञान गुणका समवाय संबंध रहनेसे आत्मा ज्ञानी कहा जा सकता है परंतु ज्ञान गुणमें ज्ञानताकी प्रतीति कैसे होगी ? यदि ज्ञान गुणमें स्वतः ही ज्ञानताकी प्रतीति कही जायगी तो फिर आत्माको भी स्वतः ही ज्ञानी मानो ज्ञान गुणका समवाय संबंध रहनेसे आत्मा को ज्ञानी मानना व्यर्थ है । यदि कहोगे ज्ञान गुणमें एक ज्ञानत्व धर्म है उससे ज्ञानताकी प्रतीति हो जायगी तो यहां पर भी यह शंका होगी कि ज्ञानत्वमें ज्ञानताकी प्रतीति कैसे होगी ? यदि यहां पर भी स्वतः ज्ञानताकी प्रतीति मानी जायगी तब आत्मामें भी स्वतः ज्ञानताकी प्रतीति मान लेनी चाहिये । समवाय संबंधसे ज्ञान गुणकी कल्पना कर आत्मा में ज्ञानताकी प्रतीति मानने की कोई आवश्यकता नहीं । यदि यह कहा जाय १ अप्रमाणिक पदार्थपरम्परापरिकल्पनाविश्रांत्य भावश्चानवस्था । सप्तभंगीतरंगिणी पृष्ठ ८२ । भाषा २२
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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