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अनवस्थाप्रतिज्ञाहानिदोषप्रसंगात् ॥ १२॥ सर्वसत्प्रतिपक्षवादिवत् १३॥ • अग्निमें उष्ण गुणका समवाय संबंध मानकर उसमें उष्णताकी प्रतीति हो जायगी और 'अग्नि 18/ 5 उष्ण है' यह व्यवहार भी हो सकेगा। परंतु उष्ण गुणमें उष्णताकी प्रतीति कैसे होगी ? यदि यह माना दू जायगा कि उष्णगुणमें उष्णताकी प्रतीतिके लिये समवाय संबंध माननेकी आवश्यकता नहीं, स्वभाव-स् है सेही उसमें उष्णताकी प्रतीति हो जायगी, तब फिर अग्निमें भी स्वभावसे ही उष्ण गुणकी प्रतीति मान है लेनी चाहिये । वहां भी अग्निमें उष्णगुणके समवाय संबंधकी कोई आवश्यकता नहीं। याद यह कहा है 2 जायगा कि उष्णगुणमें भी एक उष्णत्व जाति-वा धर्म मौजूद है उससे उष्णगुणमें उष्णता की प्रतीति
हो जायगी तो वहां पर भी यह पूछा जा सकता है कि उष्णव धर्ममें उष्णपनेकी प्रतीति किस संबंधसे
होगी? यदि उसमें स्वभावसे ही उष्णपना माना जायगा तब अग्निमें भी स्वभावसे ही उष्णपना मान E लेना चाहिये वहां पर भी समवाय संबंधकी कल्पना करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। यदि यह कहा । टू जायगा कि अनिमें स्वभावसे उष्णपना मानना हमें इष्ट नहीं, उष्णत्व धर्ममें उष्णता की प्रतीतिके लिये हूँ हम दूसरा उष्णत्वत्व धर्म मान लेंगे और उससे उसमें उष्णपनेकी प्रतीति हो जायगी उसी प्रकार उष्णः है त्वत्वमें भी दूसरा (उष्णत्वत्वत्व) धर्म मान लेंगे उससे उष्णत्वसमें भी उष्णपने की प्रतीति हो जायगी है इसी प्रकार आगे भी धर्मोंकी कल्पना कर उनसे पहिले पहिलेके धर्मों में उष्णपनेकी प्रतीति होती चली है।
१ नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम् जातित्वम् । जो नित्य हो और अनेकोंमें समवाय सम्बन्धसे रहे वह जाति है नैयायिक और वैशेषिक उष्णत्वको जाति मानते हैं क्योंकि वह धर्म अनेक उष्णोंमें रहता है और उनके मतानुसार नित्य भी है। मुक्तावली पृष्ठ ७।
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