SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षमिति' जिस ज्ञानमें इंद्रिय और मनकी अपेक्षा नहीं। व्याभिचार है की भी संभावना नहीं और जो साकारं पदार्थका ग्रहण करनेवाला है वह प्रत्यक्ष है। पहिले यह प्रत्यक्ष है का लक्षण कहा गया है। मनःपर्ययज्ञानमें यह प्रत्यक्षका लक्षण निरापद रूपसे घट जाता है इसलिये वह प्रत्यक्षज्ञान ही है, परोक्ष अनुमानज्ञान नहीं हो सकता किंतु अनुमान ज्ञानमें प्रत्यक्षका लक्षण घट नहीं सकता इसलिये वह प्रत्यक्षज्ञान नहीं कहा जा सकता क्योंकि उपदेशपूर्वकत्वाच्चक्षुरादिकरणानिमित्तत्वादानुमानस्य ॥७॥ यह अग्नि है और यह धुवा है इस प्रकार किसी मनुष्यके उपदेश-वतानेसे, जानकर, पीछे नेत्र है आदि इंद्रियोंके द्वारा धूमके देखनेसे जो अग्नि ज्ञान होता है वह अनुमान कहा जाता है इसलिये अनुमान है ज्ञानमें इंद्रियोंकी अपेक्षा रहने के कारण जब प्रत्यक्षका लक्षण नहीं घटता तब वह प्रत्यक्षज्ञान नहीं कहा 18 जाता । मनःपर्ययज्ञानमें उपदेश इंद्रिय आदिकी अपेक्षा नहीं रहती। उसमें अखंडरूपसे प्रत्यक्षका 18 लक्षण घट जाता है इसलिये वह प्रत्यक्षज्ञान है। स द्वेधा सूत्रोक्तविकल्पात् ॥ ८॥ आयस्त्रेधार्जुमनोवाक्कायविषयभेदात् ॥९॥ ..."ऋजुचिपुलमती मनःपर्ययः" इस सूत्रमें मनःपर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद 5 कहै हैं इसलिये ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे मनापर्ययज्ञान दो प्रकारका है। उनमें आदिके ऋजु , मति मनःपर्ययज्ञानके तीन भेद हैं, वे इसप्रकार हैं-ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ-सरल मन द्वारा किये गए अर्थका है जाननेवाला , ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ-सरल वचनद्वारा किए गए अर्थका जाननेवाला २ और ऋजुकाय. “ १०० कृतार्थज्ञ-सरल कायदारा किये गए अर्थका जाननेवाला ३ इन तीनों भेदोंका खुलासा इसप्रकार है SRAEBARECECREGRECE PORELECISISTERSOURISTSSARSHABAR %
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy