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________________ PORNHEI भाषा CBREAMECREGALLA करनेके लिये मनःपर्ययज्ञानकी उत्पचिमें परका मन आपेक्षिक कारण है अर्थात् दूसरेका मन ज्ञातव्य. है पदार्थका अवलम्बनमात्र है किंतु जिस तरह चक्षु आदि इंद्रियोंसे मतिज्ञान वा केवल मनसे श्रुतज्ञान. है अल्पाव उत्पन्न होता है उस तरह परके मनसे मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती इसलिये मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता। अथवा और भी यह वात है कि. स्वमनोदेशे वा तदावरणकर्मक्षयोपशमव्यपदेशाच्चक्षुष्यवधिज्ञाननिर्देशवत् ॥५॥ __चक्षुके स्थानमें अर्थात जो चक्षुका स्थान है उसमें रहनेवाले आत्मप्रदेशोंमें अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम हो जानेसे जिस प्रकार नेत्रमें अवधिज्ञान मान लिया जाता है किंतु उस अवधिज्ञानको मति- हूँ है ज्ञान नहीं कहा जाता उसीप्रकार जिस स्थानपर मन रहता है उस स्थानके आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्यय-है ज्ञानावरणका क्षयोपशम रहनेपर उन्हें भी मनःपर्ययज्ञान ही कहा जायगा मतिज्ञान नहीं कहा जा सक्ता। शंका मन प्रतिबंधज्ञानादनुमानप्रसंग इति चेन्न प्रत्यक्षलक्षणाविरोधात ॥६॥ जिसतरह धूम और अग्निका अविनाभाव संबंध निश्चित है इसलिये उस संबंध के ज्ञानसे पर्वत आदि स्थलोंमें जहाँपर अग्निसे धूम निकल रहा है वहांपर उस धूमसे अग्निका जान लेना अनुमान ज्ञान माना जाता है उसीप्रकार दूसरेका मन और उसमें रहनेवाले पदार्थका आपसमें अविनाभाव संबंध है इसलिये उस संबंधके ज्ञानसे जो मनमें तिष्ठते हुए पदार्थका जान लेना है और जिसे मनःपर्यय कहा जाता है वह अनुमान ज्ञान ही है-अनुमानज्ञानसे भिन्न नहीं। इसरीतिसे जब अनुमानज्ञानमें ही मन: है पर्ययकाअंतर्भाव है तब मनःपर्ययज्ञानको जुदा मानना निरर्थक है ? सो ठीक नहीं।'इंद्रियानिद्रियनिर- २४
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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