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________________ FRISTRESSINESSPERIES अपेक्षा अजघन्योत्कृष्ट परमावधिकी सामान्यरूपसे क्षेत्रकी वृद्धि असंख्यात लोक प्रमाण है और यह असंख्यातलोक पर्यंत क्षेत्रवृद्धि उत्कृष्ट परमावधिक क्षेत्रसे पहिले पहिलेकी समझ लेनी चाहिये तथा असंख्यात लोकमें जो असंख्यात संख्या है वह आवलिके असंख्यातभागप्रमाण है। यहांपर काल द्रव्य और भावका प्रमाण पूर्ववत्-जघन्य परमावधिक काल और भावके निरूपणमें जो रीति वतलाई है उसी ६ ६ के समान, समझना चाहिये । (यह अजघन्योत्कृष्ट परमावधिके क्षेत्र आदिका प्रमाण है) तथा उत्कृष्ट ६ * परमावधिका क्षेत्र लोकअलोकका जितना प्रमाण है उतने प्रमाणवाले असंख्यात लोक है और वे असं हूँ हूँ ख्यातलोक अग्निकायके जीवोंकी संख्याकी वरावर हैं। यहांपर भी काल द्रव्य और भावका प्रमाण र पहिले कहे अनुसार हैं। इस प्रकार जघन्य उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट यह तीनों प्रकारका परमावधि उत्कृष्ट चारित्रके धारक संयमीके ही होता है अन्यके नहीं। वर्धमान ही होता है, हीयमान नहीं। अप्रतिपाती-सदा रहनेवाला ही होता है प्रतिपाती नहीं होता, छूटता नहीं। लोकप्रमाण असंख्यात लोक क्षेत्रमें तीनों प्रकारका परमावधि जिसके जितने क्षेत्रको लेकर उत्पन्न होता है उसके उतने ही क्षेत्रको ६ लेकर वहांपर निश्चल रूपसे रहता है इसलिये अवस्थित है तथा अनवास्थित भी है परंतु वृद्धिकी अपेक्षा 5 हूँ ही अनवास्थित है हानिकी अपेक्षा नहीं । अर्थात् वढता तो रहता है परंतु कम नहीं होताइसलोक संबंधी हूँ टू दूसरे दूसरे प्रदेशोंमें जानेसे अनुगामी है और परलोकमें साथ नहीं जाता इसलिये अननुगामी है।द्रव्य ते क्षेत्र आदिकी अपेक्षा सविधिका वर्णन इस प्रकार है -- असंख्यातके असंख्याते ही भेद माने हैं. इसलिए उत्कृष्ट परमावधिका जो क्षेत्र कहा है उससे असं. १ या सर्वावधिज्ञान निर्विकल्प है इसके देशावधि आदिके समान जघन्य उत्कृष्ट प्रादि भेद नहीं। CollectscetectScrector ate ३१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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