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________________ RISTALORSTNERI RCIBARORRORECAS और उससे वह घूवा देखकर, 'यहां अग्नि है ऐसा पहिलेके समान अग्निका निश्चय कर लेता है यह पूर्ववत् अनुमान है। शेष-अवशिष्ट भागका जान लेना शेषवत् अनुमान है। जिसतरह किसी पुरुषने पहिले 8 अध्याय % सींग और सींगवालेका संबंध निश्चित कर रक्खा है, वह जहां सींगोंको देखता है वहां उस सींगवालेका हूँ निश्चय कर लेता है । यह शेषवत् अनुमान है । तथा सामान्यसे जहां पर प्रतिपचि हो जाती है वह है सामान्यतो दृष्ट है जिसतरह-एक जगहसे दूसरी जगहपर पहुंचना देवदचका विना चले नहीं हो सकता हूँ है इसलिये जिसप्रकार देवदचका दूसरी जगह पर पहुंचना गतिपूर्वक है उसीप्रकार यद्यपि सूर्यको गमन है क्रिया प्रत्यक्षमें नहीं दीख पडती तो भी वह जो पूर्व दिशामें उदित होकर पश्चिम दिशामें जाकर अस्तॐ होता है, 'यह एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जाना' विना गमन क्रियाक नहीं हो सकता इसलिये देवदत्त ५ की गमनक्रियासे सूर्य की गमनक्रियाका निश्चय कर लिया जाता है यह सामान्यतो दृष्ट अनुमान है। श्रुतज्ञानके अनक्षरश्रुत और अक्षरश्रुत दो भेद माने हैं जिससमय उक्त तीनों प्रकारके अनुमानोंसे स्वयं ५ ज्ञान करना होगा वहां उनका अनक्षर श्रुतमें अंतर्भाव है और जहां पर दूसरेको ज्ञान कराया जायगा वहां पर अक्षर श्रुतमें अंतर्भाव है इसरीतिसे श्रुतज्ञानके ही अंतर्गत हो जानेसे अनुमानका मतिज्ञान है आदिके समान पृथक् उल्लेख नहीं किया जा सकता। तथा जैसी गऊ होती है वैसा ही गवय (रोज) होता है केवल साना (गलेमें लटकता हुआ मांसपिंड) का भेद है। इसका दूसरे दूसरे सिद्धांतकारोंने उपमान प्रमाण माना है परंतु यह भी श्रुतज्ञान ही है क्योंकि 'जैसी गऊ होती है वैसी ही गवय होता है केवल सास्त्राका भेद रहता है जिससमय इसप्रकारका ज्ञान स्वयं होता है उससमय उसका अनक्षर श्रुतमें अंतर्भाव है और जिससमय दूसरेको ज्ञान कराया जाता है उससमय अक्षरात्मक श्रुतज्ञानमें अंतर्भाव ३७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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