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________________ 영 भाषा ३७५ Get AJA है । तथा घट आदि शब्दों से जो उनके अर्थका ज्ञान होता है उसे अन्य सिद्धांतकारोंने शब्द प्रमाण मान रक्खा है परंतु वह स्पष्ट श्रुतज्ञान है । 'इसप्रकार इस भरत क्षेत्र में भगवान ऋषभदेव हुए' इसतरह ज्ञानको किसी किसीने ऐतिह्य प्रमाण मान रक्खा है परंतु यह बात परंपरासे पुरुषों के शास्त्र-वचनों से जानी जाती है इसलिये वह श्रुतज्ञानसे भिन्न नहीं । तथा "अमुक पुरुष दिनमें तो खाता नहीं परंतु जीता जागता हृष्ट पुष्ट है वहां पर यह सुलभरूपसे निश्चय कर लिया जाता है कि वह रातको जरूर खाता होगा नहीं तो विना भोजन के उसका जीना आदि असंभव है" ऐसे ज्ञानको लोगोंने अर्थापत्ति प्रमाण माना है । तथा चार प्रस्थ (पायली ) का एक आढक ( परिमाण विशेष ) होता है ऐसा ज्ञान जाने पर कहीं को नाजको देखकर यह जान लेना कि यह आधे आढक प्रमाण है इस ज्ञानको लोग प्रतिपत्ति प्रमाण मान लिया है। तथा तृण गुल्म वृक्ष आदिमें हरापन, पत्ते और फल आदि न देख कर यह जान लेना कि यहां पर निश्चयसे मेघ नहीं वर्षा है, इस ज्ञानको अन्य सिद्धांतकारोंने अभाव प्रमाण माना है परंतु अर्थापत्ति प्रतिपचि और अभाव ये सब ज्ञान अनुमान प्रमाणके अंतर्भूत हैं और अनुमानको ऊपर श्रुतज्ञान सिद्ध कर आये हैं इसलिये इन सबका श्रुतज्ञानमें ही अंतर्भाव है श्रुतज्ञान से भिन्न नहीं है इसरीति से श्रुतज्ञानके कहने से ही अनुमान आदिका ग्रहण हो जानेसे उनका पृथकू उल्लेख ( नहीं किया गया ॥ २० ॥ प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे थे । उनमें परोक्ष प्रमाणका स्वरूप बतला दिया गया । अब प्रत्यक्ष प्रमाणपर विचार किया जाता है । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं एक देश प्रत्यक्ष दूसरा सकल प्रत्यक्ष । १ उपमान अर्थापत्ति आदिका प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों में अन्तर्भाव प्रमेयकमलमार्तड पत्र संख्या ५० में खुलासा रूपसे है । अध्याप १ ३७५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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