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________________ अध्याप तरा मापा - BREADARSANS-SERIESGR न चक्षुरनिंद्रियाभ्यां ॥ १६॥ नेत्र इंद्रिय और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता । क्यों नेत्र और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता। ई वार्तिककार उसमें कारण बतलाते हैं व्यंजनावगहाभावश्चक्षर्मनसोरप्राप्यकारित्वात ॥१॥ जो पदार्थ अप्राप्त हो इंद्रियसे प्राप्त होकर ग्रहण न किया जाय, अविदिक सन्मुख रक्खा हो, युक्त योग्य हो, सन्निकर्षका विषय होने योग्य हो और वाह्य प्रकाशसे अभिव्यक्त-स्पष्ट रूपसे दीख पडनेवाला हो ऐसे पदार्थका ज्ञान नेत्रसे होता है तथा अप्राप्त और स्पष्ट पदार्थका ही मनसे ज्ञान होता है इस रीतिसे | जब नेत्र और मनसे व्यक्त पदार्थका ही ग्रहण होता है और व्यंजनावप्रहमें अव्यक्त पदार्थोंका ही| है ग्रहण माना है तब नेत्र और मनसे अर्थावग्रह ही होता है व्यंजनावग्रह नहीं हो सकता। इच्छामात्रमिति चेन्न सामर्थ्यात्॥२॥ आगमतो युक्तितश्च॥३॥ नैयायिक लोग नेत्र इंद्रियको प्राप्यकारी मानते हैं उनका सिद्धांत है कि नेत्र तैजस इंद्रिय है, सूर्य आदि तैजस पदार्थमें जिसतरह किरणें हैं और वे आकर पदार्थों के साथ संबंध करती हैं उसी तरह नेत्र | इंद्रियके अंदर भी किरणें हैं और वे पदार्थों के साथ संबंध करती हैं तब उनके ज्ञान होता है इसलिए ||७|| उनकी ओरसे यदि यह शंका हो कि वक्ष प्राप्यकारी है-पदार्थके पास जाकर उसका ज्ञान कराती है। | यह युक्तिसिद्धःबात है. तब उसे अप्राप्यकारी मानना इच्छामात्र है-युक्तिसे सिद्ध नहीं ? सो ठीक | १न तो इंद्रियसे बहुत-दूर हो और न अति निकट हो किंतु जितने क्षेत्रवर्ती पदार्थको इंद्रिय ग्रहण कर सकती हैं उतने ही क्षेत्र पर पदार्थ उपस्थित हो इसीका नाम योग्यता है। AALAAAAAAAEECISGARCASSALSANSAR O SSEDGE ४२
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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