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सभी पदार्थोंके अवग्रह आदि जब माने जायगे तो अव्यक्त पदार्थक अवग्रह होता है यह विशेष कथन व्यर्थ ही पडेगा । अव्यक्त पदार्थका अवग्रह तो सिद्ध है ही इसलिये ईहादिकी निवृचिके लिये उपयुक्त नियम मानना ही होगा। यदि कदाचित् यहाँपर यह शंका की जाय कि
तयोरभेदो ग्रहणविशेषादिति चेन्न व्यक्ताव्यक्तभेदादभिनवशराववत् ॥२॥ । जिस तरह शब्द आदि पदार्थोंका अर्थावग्रहसे ग्रहण होता है उसीतरह व्यंजनावग्रहसे भी होता हे कोई भेद नहीं इसलिये दोनों प्रकारके अवग्रहोंमें जब कोई विशेष नहीं तब अवग्रहको दो प्रकारका || मानना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । जिस तरह नवीन मिट्टीका कोरा सरावा सूक्ष्म जलकी एक दो तीन ब्दोंके पडने पर गीला नहीं होता इसलिये उसका गीलापन स्पष्टरूपसे न दीख पडनेके कारण व्यक्त नहीं कहा जाता किंतु वही कोरा सरवा बार बार धीरे धीरे जलके सींचे जानेपर गीला हो जाता है। और उसका गीलापन स्पष्टरूपसे दीख पडनेके कारण व्यक्त कहा जाता है उसी तरह जहां पर ज्ञानमें पदार्थोंका व्यक्तरूपसे ग्रहण होता है वहां पर अर्थावग्रह कहा जाता है और जहां पर अव्यक्तरूपसे ग्रहण होता है वहां पर व्यंजनावग्रह कहा जाता है इसप्रकार व्यक्त ग्रहण और अव्यक्त ग्रहणकी ॥ अपेक्षा अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह दोनों प्रकारके अवग्रहोंमें भेद है इसलिये उन दोनोंका मानना है व्यर्थ नहीं ॥१०॥
जिसतरह अर्थावग्रह सब इंद्रियोंसे होता है उसतरह व्यंजनावप्रहका होना भी सब इंद्रियोंसे प्राप्त है परंतु इंद्रियोंसे व्यंजनावग्रह होता नहीं इसलिये ज़िन जिन इंद्रियोंसे व्यंजनावग्रह नहीं होता उन उन इंद्रियोंका सूत्रकार उल्लेख करते हैं
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