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अध्याय
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। नहीं, आगम और युक्ति दोनों प्रकारसे चक्षु अप्राप्यकारी ही सिद्ध होता है उसमें आगमसे इसप्रकार है
पुढे सुणोदि सदं अपुढे पुणवि पस्सदे रूवं । गंध रसं च फासं पुढे बटुं विजाणादि ॥१॥ ' स्पृष्टं भृणोति शब्दमस्पृष्टं पुनरपि पश्यति रूपं । गंध रसंच स्पर्श स्पृष्टंवद्धं विजानाति ॥१॥
आत्मा शब्दको कर्ण इंद्रियसे स्पर्श होने पर ही सुनता है, और रूपको नेत्रंद्रियसे स्पर्श नहीं होने पर दूरवर्ती रहने पर ही देखता है । तथा गंध रस और स्पर्शको प्राण रसना और स्पर्शनेंद्रिय द्वारा स्पर्श 8 * करने पर और बद्ध हो जाने पर ही जानता है । इस आगमसे चक्षु अप्राप्यकारी है। युक्तिसे भी वह अप्राप्यकारी है--
जो इंद्रिय प्राप्यकारी होती है-पास जाकर पदार्थका ज्ञान कराती है वह अपनेसे संबंधित पदार्थको ही जनाती है। स्पर्शन इंद्रिय प्राप्यकारी-संबंध कर पदार्थका ज्ञान कराती है इसलिए वह अपनेसे संबं. धित पदार्थका ज्ञान कराती है। नेत्र इंद्रिय प्राप्यकारी नहीं क्योंकि उससे संबंधित पदार्थका ज्ञान नहीं
होता यदि उसे प्राप्यकारी माना जायगा तो नेत्रमें लगे हुए काजलका भी नेत्र इंद्रियसे ज्ञान होना ६ चाहिए परंतु उसका ज्ञान नहीं होता इसलिए जिस तरह मन इंद्रिय अप्राप्यकारी है-पास जा कर
पदार्थका ज्ञान नहीं कराती है उप्तीप्रकार नेत्र इंद्रिय भी अप्राप्यकारी है, वह भी पदार्थके पास जाये बिना ही उसका ज्ञान करा देती है । शंका
जिस तरह स्पर्शन इंद्रिय आवृत-ढके हुए पदार्थके जाननेमें असमर्थ है क्योंकि वह छूकर ही ज्ञान कराती है। इसलिए उसे प्राप्यकारी माना गया है उसी प्रकार नेत्र इंद्रियसे भी ढके हुएं पदार्थका ग्रहण नहीं होता इसलिए वह भी प्राप्यकारी है। इस रीतिसे नेत्र इंद्रिय प्राप्यकारी है क्योंकि वह आवृता
PRECIPASHA SHIKARINETRATEGHAGHATARNAKAR
ISTMECEMAHASRIGet