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________________ अध्याय 20-MASAREASUR RESEARNERAMERG अवाह आदिमें उतनी नहीं इसलिये अल्प अल्पविष आदि नामोंका जुदा उल्लेख न कर बहु बहुविध आदिक नामोंका जुदा जुदा उल्लेख किया है और सेतर शब्दसे अल्प अल्पविध आदि शब्दोंका ग्रहण किया है। अवग्रह आदि हरएक ज्ञानके इंद्रिय और मनकी अपेक्षा वारह वारह भेद होते हैं और वे इस प्रकार हैं श्रोत्रंद्रियावरण और वीयाँतरायके तीव्र क्षयोपशमसे एवं अंगोपांग नामक नामकर्मके बलसे ६ संभिन्नसंश्रोतृ नामक ऋद्धि के धारक वा उससे भिन्न किसी पुरुषके, एकसाथ तत (तांतका शब्द) हूँ वितत (डंका वा तालका शब्द) घन (कांसेके वाद्यका शब्द) और सुषिर (वंशी आदिका शब्द) है आदि शब्दोंका अवग्रह ज्ञान होता है "यद्यपि नत आदि भिन्न भिन्न शब्दोंका ग्रहण अवग्रहसे नहीं हो है सकता है तथापि उनके समुदायरूप सामान्यको वह ग्रहण करता है यह अर्थ समझ लेना चाहिये । यहां पर यह शंका हो सकती है कि संभिन्नसंश्रोतृ ऋद्धिके धारक पुरुषके तत आदि शब्दोंका स्पष्टतया भिन्न भिन्न रूपसे ज्ञान रहता है इसलिये उसके अवग्रह ज्ञानका होना बाधित है ? सो ठीक नहीं । सामान्य ६ मनुष्यके समान उक्त ऋद्धिधारीके भी कमसे ही ज्ञान होता है इसलिये उसके अवग्रहज्ञानका होना हूँ असंभव नहीं।” एवं श्रोत्रंद्रियावरण आदि कर्मोंकी क्षयोपशम रूप विशुद्धिकी मंदतासे आत्माके तत हूँ हूँ आदि शब्दों से किसी एक शब्दका अवग्रह होता है। श्रोत्रंद्रियावरण और वीयांतराय कर्मके तीन क्षयोपशमसे और अंगोपांग नामके नामकर्मके बलसे है आत्मा तत आदि शब्दोंमें हर एकके दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनंत भेदोंका ग्रहण करता है २ ३१५ : * इसलिए उससमय उसके बहुत प्रकारका अवग्रह होता है और श्रोत्रंद्रियावरण आदि कर्मोंकी क्षयोपशम EMESSAURUS ASHOGELGEEG LEONE - --
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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