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________________ सम्रा भाषा RASHRSIRECAUGHEACHEATRENDRABINE B/ रूप विशुद्धिके मंदरहनेपर आत्मा तत आदि शन्दोंमें किसी एक प्रकारके शब्दको ग्रहण करता है इसलिये उसके एकविध पदार्थका अवग्रह कहा जाता है। श्रोत्रंद्रियावरण और वीयांतराय कर्मके तीन क्षयोपशम रूप विशुद्धिसे और अंगोपांग कर्मके & बलसे आत्मा बहुत शीघ्र शब्दको ग्रहण कर लेता है इसलिए उसके क्षिप्र पदार्थका अवग्रह कहा जाता है है और श्रोत्रंद्रियावरण आदि कौकी क्षयोपशमरूप विशुद्धिकी मंदता होने पर आत्माके देरीसे है | शब्दका ग्रहण होता है इसलिये उसके चिर-देरीसे होनेवाला अवग्रह कहा जाता है। श्रोत्रंद्रियावरण और वीयांतराय कर्मके तीन क्षयोपशमसे और अंगोपांग नाम कर्मके बलसे परिणत आत्मा जिस समय विना कहे वा बिना बताये शब्दको ग्रहण करता है उस समय उसके अनिःसृत पदार्थका अवग्रह होता है और श्रोत्रंद्रियावरण आदि कर्मोंकी क्षयोपशमरूप विशुद्धिकी मंदता से जिस समय आत्मा मुखसे निकले हुए शब्दका ग्रहण करता है उस समय निःसृत पदार्थका अवग्रह होता है। श्रोत्रंद्रियावरण और वीयांतराय कर्मके तीन क्षयोपशमसे एवं अंगोपांग नाम कर्मके बलसे परिणत आत्मा जिस समय समस्त शब्दका न भी उच्चारण किया जाय किंतु एकवर्णके मुंहसे निकलते ही अभि. प्राय मात्रसे उस समस्त शब्दको ग्रहण कर लेता है कि आप यह कहने वाले हैं उस समय उसके अनुक्त पदार्थका अवग्रह होता है और श्रोत्रंद्रियावरण आदि कर्मों की क्षयोपशम रूप विशुद्धिकी मंदतासे जिस समय आत्मा समस्त शब्दके कहे जाने पर उसे ग्रहण करता है उस समय उसके उक्त पदार्थका अवग्रह होता है। अथवा उक्त क्षयोपशमादि कारणोंके आत्मामें प्रगट हो जाने पर तंत्रीवामृदंग आदि monterentrent SAMADHAVALSARKALOE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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