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________________ अध्याव पर किसरीतिसे सर्वज्ञको असर्वज्ञपना आता है, यह बात विस्तारपूर्वक पहिले कह दी जा चुकी है। यदि यहां पर यह समाधान दिया जाय कि आगमादिति चेन्न तस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् ॥७॥ इंद्रियोंसे न भी अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान हो तो भी आगमसे अव्याघातरूपसे उनका ज्ञान हो सकता है इसलिये आगमके द्वारा जब समस्त पदार्थों का ज्ञान हो सकता है तव सर्वज्ञका भी अभाव नहीं है, कहा जा सकता ? सो भी कहना अयुक्त है। क्योंकि जिसका प्रतिपादन समस्त दोषोंसे रहित सर्वज्ञानी हूँ आप्तके प्रत्यक्षज्ञानसे होता है वही आग़म माना जाता है अन्य आगम नहीं किंतु आगमाभास है इसरीतिसे जब आगमकी उत्पचि प्रत्यक्षज्ञानसे मानी गई है तब आगमसे प्रत्यक्ष ज्ञानकी कभी सिद्धि नहीं है। हो सकती । वास्तवमें तो यदि आगमते प्रत्यक्ष ज्ञानकी सिद्धि मानी जायगी तो अन्योन्याश्रय दोष है। न होगा क्योंकि "स्वापेक्षापेक्षकत्वं ह्यन्योन्याश्रयत्वं” दो पदार्थों में एकको दूसरेकी अपेक्षाका होना अन्यो न्याश्रय दोष कहा जाता है । जब आगमसे प्रत्यक्षज्ञानकी सिद्धि मानी जायगी तब आगमसे प्रत्यक्ष ६ ज्ञान और विना प्रत्यक्षज्ञानके आगमका प्रतिपादन नहीं हो सकता इसलिये प्रत्यक्षज्ञानसे आगम, इस हूँ तरह प्रत्यक्षज्ञानको अपनी उत्पचिभे आगमकी अपेक्षा और आगमको अपनी उत्पचिमें प्रत्यक्षज्ञानकी हूँ , अपेक्षा होनेके कारण अन्योन्याश्रय दोष होनेसे आगमसे अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। है फिर भी यदि यह कहा जाय कि अपौरुषेयादिति चेन्न तदासद्धेः॥८॥ जब आगमका प्रतिपादन प्रत्यक्षज्ञानसे माना जायगा तब उपर्युक्त दोष हो सकता है किंतु हम तो ASOKAARELUPIRECRRESTERESCREGISTRATION २६६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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