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________________ 1०रा० अध्याय MEROINCREACHECHIKANGAROBARELIGIONECHECLICE में कोई हानि नहीं ? सो भी अयुक्त है। समवायको व्यापक सम्बंध माना है तथा आत्मा इंद्रिय आदि सभी पदार्थ सामान्यरूपसे ज्ञस्वभावसे शून्य हैं-आत्मा आदि किसी भी पदार्थको ज्ञानस्वभाव नहीं माना किंतु ज्ञानसे भिन्न माना है फिर सामान्यरूपसे सब पदार्थों के ज्ञान स्वभावसे रहित होनेपर भी समवाय संबंधसे आत्मामें ही ज्ञान रहता है इंद्रिय आदिमें नहीं यह वात किसी भी विद्वानको रुचिकर नहीं हो सकती इसलिये समवाय संबंधसे कभी ज्ञान आत्मामें नहीं रह सकता तथा जब समवाय संबंध से आत्मामें ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो सकती तब सन्निकर्ष भी प्रमाण नहीं माना जा सकता । इसी तरह यदि कोई मनुष्य यह कहै कि इंद्रियोंमें समवायसंबंधसे ज्ञान मानेंगे सो भी ठीक नहीं क्योंकि उपर्युक्त युक्तिसे इंद्रियों में भी समवाय संबंधसे ज्ञान सिद्ध नहीं हो सकता ॥१०॥ अनुमान उपमान, अनुमान आगम, अनुमान प्रत्यक्ष, उपमान प्रत्यक्ष, उपमान आगम, आगम प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष परोक्ष इनमेंसे ही कोई दो ज्ञान परोक्ष न मान लीये जांय किंतु मति आदि जो पहिले पांच ज्ञान बतलाये गए हैं उनमें ही मति और श्रुत दो ज्ञान परोक्ष माने जांय, नियम रूपसे यह वात बतलानेके लिये सूत्रकार सूत्र कहते हैं आये परोक्षं ॥११॥ __मतिबान आदि जो पांच ज्ञान कहे हैं उनमें आदिके दो ज्ञान-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं। अपने होनेमें इंद्रिय आदि पर पदार्थों की अपेक्षा रखते हैं। __आदिशब्दस्यानेकार्थवृत्तित्वे विवक्षातः प्राथम्यार्थसंग्रहः॥१॥ आदि शब्दके अनेक अर्थ हैं। अकारादयो वर्णाः अकार आदिक वर्ण हैं-वों में सबसे पहिला HASASSASSASSASSISALAAB535७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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