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________________ अ०रा० २४७ करण साधन ही माना जा सकता किंतु दोनोंका कथंचित् भेदाभेद स्वीकार करना होगा और अविरोधरूपसे प्रमाण शब्दको कर्तृसाघन आदि स्वीकार करना पडेगा । यदि कदाचित् यहाँपर यह समाधान |दिया जाय कि ज्ञानयोगादिति चेन्नाऽतत्स्वभावत्वे ज्ञातृत्वाभावोंऽधप्रदीपसंयोगवत् ॥ ९ ॥ ज्ञान भले ही आत्मासे भिन्न रहे किंतु जिस तरह दंडके संबंध से पुरुष दंडी कहा जाता है उसी | तरह ज्ञान के संबंध से आत्मा भी ज्ञानी हो जायगा कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है । जिस तरह अंधे पुरुषमें देखने की शक्ति नहीं है उसके हाथमें यदि दीपक भी दे दिया जाय तो भी वह देख नहीं सकता उसी तरह जब आत्मामें जाननेकी शक्ति नहीं है तब उसके साथ ज्ञानका सम्बंध कर भी दिया जाय तब भी वह जान नहीं सकता । इसलिये ज्ञानके सम्बंधसे आत्मा ज्ञानी हो जायगा उसे ज्ञानस्वरूप न मानना चाहिये यह वात अयुक्त है। किंतु ज्ञान और आत्माका कथंचित् अभेद मानना ही युक्त है । प्रमाणप्रमेययोरन्यत्वमिति चेन्नानवस्थानात ॥ १० ॥ दीपक घटका प्रकाशक है और घडा प्रकाश्य है - दीपकसे प्रकाशित होता है इसलिये जिसतरह दीपक और घटका आपसमें भिन्न स्वरूप होनेसे दोनों भिन्न भिन्न हैं उसी तरह प्रमाण, प्रमेयका जाननेवाला है और प्रमेय - ज्ञेय है-उससे जाना जाता है इसलिये दोनों का आपस में भिन्न भिन्न स्वरूप होनेसे दोनों को भिन्न मानना चाहिये ? सो ठीक नहीं। जिस तरह बाह्य घट आदि प्रमेयाकारसे प्रमाण अन्य है उसी तरह यदि अंतरंग - ज्ञानस्वरूप प्रमेयाकार से भी उसे अन्य माना जायगा तो अनवस्था दोष हो जायगा अर्थात् जिसतरह घट बाह्य प्रमेय है उसीतरह जाननास्वरूप ज्ञान भी अंतरंग प्रमेय भाषा २४७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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