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________________ है कहा जाता है। विना प्रमाणके जब प्रमेय का ज्ञान होना असंभव है और प्रमाणसे प्रमेय भिन्न है तब उस है ज्ञानस्वरूप प्रमेयकी सिद्धिकेलिये कोई अन्य प्रमाण मानना चाहिये वह भी प्रमेय है उसकी सिद्धिके । लिये भी कोई अन्य प्रमाण मानना चाहिये इसरीतिसे अनवस्था दोष होगा इसलिये प्रमाण और प्रमेय का कथंचित् अभेद मानना ही ठीक है अर्थात् घट आदि प्रमेयाकारोंसे प्रमाण भिन्न है किंतु ज्ञानस्वरूप 3 ६ प्रमेयाकारसे उसका कोई भेद नहीं। यदि यहां पर यह कहा जाय कि प्रकाशवदिति चेन्न प्रतिज्ञाहानेः॥११॥ जिस तरह प्रकाश घट पट आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है और अपनेको भी प्रकाशित करता है किंतु प्रकाशको अपने प्रकाशनकेलिये अन्य प्रकाशकी आवश्यकता नहीं रहती उसीतरह घटपट आदि है प्रमेयोंका जानना ज्ञानसे होता है और ज्ञानका भी ज्ञान उसी ज्ञानसे ही होता है किंतु ज्ञानको अपने " जानने के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं होती, इसरीतिसे जब ज्ञानको अपने स्वरूपके जाननके लिये दूसरे ज्ञानकी कोई आवश्यकता नही तब प्रमाण और प्रमेयके भिन्न मानने में जो अनवस्था दोष १६ दिया था वह व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। ऐसा कहनेसे जो मनुष्य प्रमाण और प्रमेयका सर्वथा भेद मानने हूँ वाला है उसकी प्रतिज्ञाका भंग होजाता है क्योंकि प्रकाश्य-जिस प्रकाशको प्रकाशित किया गया है वह है और जो प्रकाशक-प्रकाशन करनेवाला है वह भिन्न नहीं, इसीतरह यदि ज्ञान अपनेको जानेगा तो स्वयं है - ही वह प्रमेय और प्रमाण वन जायगा । यहां पर प्रमाण और प्रमेयका भेद न होगा इस रातिसे वही प्रमेय और प्रमाण बन जाता है। प्रमाण और प्रमेयका भेद सिद्ध नहीं होता। . अनन्यत्वमेवेति चेन्नोभयाभावपूसंगात् ॥ १२॥ SRAEKOREGAORERESTERIES SCIEGISTORISTOTRORISTOTRASTRIESRRECE २४८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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