________________
मापा.
PARE
RELUGURUIREMERGER
प्रमाण शब्दको भावसाधन माननेपर भी ये दोनों फल जुदे जुदे अनुभवमें आते हैं इसलिये अज्ञान9 निवृत्ति के सिवाय जब प्रीति उपेक्षा और अज्ञाननाश ये भिन्न भी फल दीख पडते हैं तब प्रमाण शब्दको भावसाधन मानना सफल है। विफल नहीं।
ज्ञातप्रमाणयोरन्यत्वमिति चेन्नाज्ञत्वप्रसंगात् ॥ ८॥ नैयायिक आदि गुण गुणीका भेद मानते हैं। उनके मतमें द्रव्य पदार्थ जुदा है और रूप आदि टू गुण जुदे माने हैं । ज्ञान गुण और आत्मा गुणी है इसलिये ज्ञान भी आत्मासे भिन्न है तथा यह उनके 2 आगमका वचन भी है कि-'आत्मेंद्रियमनोर्थसंनिकर्षाद्यनिष्पद्यते तदन्यदिति ' आत्मा इंद्रिय मन
और पदार्थके संबंधसे जो उत्पन्न हो वह अनुमानादिसे अन्य प्रत्यक्ष ज्ञान है । आत्मा आदि पदार्थों के संबंधसे ज्ञान उत्पन्न होता है इसलिये वह आत्मासे भिन्न है इस रीतिसे प्रमाण-ज्ञान, गुण होनेसे जब प्रमाणता-आत्मा, गुणीसे भिन्न है तब 'प्रमिणोत्यात्मानं परं वा प्रमाणमिति,' जो निज और परको जाने वह प्रमाण है इस रीतिसे प्रमाण शब्द कर्तृसाधन नहीं कहा जा सकता किंतु उसे करण साधन ही मानना चाहिये अर्थात् कर्तृसाधन माननेपर आत्मा और ज्ञानका अभेद संबंध जान पडता है और करण साधन माननेपर सर्वथा दोनोंका भेद सिद्ध होता है क्योंकि करण सर्वथा भिन्न रहता है इसलिये प्रमाण शब्दको कर्तृसाधन मानना ही ठीक है ? सो नहीं। यदि प्रमाण शब्दको करण साधन माना जायगा और उसे आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जायगा तो जिसतरह ज्ञानसे सर्वथा भिन्न रहने के कारण
घट अज्ञानी कहा जाता है उसीतरह ज्ञानकी भी आत्मासे सर्वथा भिन्नता हो जानेपर आत्मा भी अज्ञानी ६ कहना पडेगा इसलिये ज्ञान और आत्माका सर्वथा भेद नहीं कहा जा सकता और न आत्मा एकांतसे
RECORRECORRECTEGORIGISTREECE
REACHER