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प्रत्यभिज्ञान होता है । अनिश्चित पदार्थका नहीं। यदि ज्ञान अपने स्वरूपको न जानेगा तो स्वयं अज्ञानी | हो उत्तरकाल में यह कैसे कह सकेगा ? कि 'मैं ज्ञानवान हूं" क्योंकि जब तक ज्ञान अपने स्वरूपको न जानेगा तबतक 'मैं ज्ञानवान हूं' यह स्मृति नहीं हो सकती इस रीति से जब ज्ञानको निज स्वरूपका | जाननेवाला न माननेपर स्मृतिज्ञान नहीं बन सकता तब उसे स्व और परका जाननेवाला मानना ही
आवश्यक है। शंका
फलाभाव इति चेन्नार्थावबोधे प्रीतिदर्शनात् ॥ ६ ॥ उपेक्षाऽज्ञाननाशो वा ॥ ७ ॥ प्रमितिका अर्थ अज्ञानकी निवृत्ति है और उसे प्रमाणका फल माना है । यदि प्रमाण शब्दको भावसाधन माना जायगा तो उसका दूसरा कोई फल सिद्ध न हो सकेगा क्योंकि भावसाधन अर्थमें वह प्रमिति - अज्ञानकी निवृत्चिस्वरूप होगा और अज्ञानकी निवृत्ति ही प्रमाणका फल है इसलिये भावसाधन अर्थ में प्रमाणका कोई फल न होने के कारण उसकी भावसाधन व्युत्पत्ति न माननी चाहिये ? सो ठीक नहीं । यह आत्मा वास्तविक दृष्टिसे ज्ञानस्वरूप है परन्तु कर्मसे मलिन रहने के कारण इसका ज्ञान परा धीन हो रहा है इसलिये इंद्रियों के आश्रयसे जिससमय इसे किसी पदार्थका निश्चय होता है उस समय इसे जो प्रीति उत्पन्न होती है बस वही फल है इसरीतिसे जब प्रमिति - अज्ञानको निवृत्तिरूप फलसे अतिरिक्त भी प्रीतिरूप फल सिद्ध है तब भावसाधन अर्थ में प्रमाण भले ही प्रमितिरूप पड जाय, अर्थ निश्चय के बाद प्रीतिरूप फलके रहते वह निष्फल नहीं कहा जा सकता इसलिये प्रमाण शब्दको भावसाधन मानने पर कोई दोष नहीं । अथवा - उपेक्षा और अज्ञाननाश भी फल माना है । राग और द्वेषका न होना उपेक्षा कहा जाता है और आवरण के हठ जानेपर पदार्थका जानना अज्ञाननाश कहा जाता है ।
भाषाः
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