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________________ -% ASA LARIBHABINDRANSPIRBARDASTRISANE इतरथा हि प्रमाणव्यपदशाभावः॥३॥ जो ज्ञान अन्य पदार्थोंका जानकार हो और अपना भी जानकार हो वह प्रमाण माना जाता है। ५. भाषा र यदि ज्ञानको अपने स्वरूपका जाननेवाला न मान अन्य किसी ज्ञानसे उसका ज्ञान माना जायगा तो वह प्रमाण ही न कहा जा सकेगा क्योंकि जो स्व और पर पदार्थोंका जानकार है वही प्रमाण माना एं जाता है इसलिये किसी दूसरे प्रमाणसे प्रमाणका ज्ञान न मानकर उसे स्व और परका जाननेवाला ही है ल मानना चाहिये। तथा विषयज्ञानतद्विज्ञानयोराविशेषः॥४॥ यदि ज्ञानको निजस्वरूपका जाननेवाला न मानकर परपदार्थोंका ही जाननेवाला माना जायगा ५ तो उसमें निजाकार-ज्ञानाकारस्वरूपता तो होगी नहीं, घट पटादि विषयाकारस्वरूपता ही रहेगी। र उसके बाद उस पहिले ज्ञानके जानने के लिये जो दूसरा ज्ञान मानाजायगा उसमें भी विषयाकारस्वरूपता है ही रहेगी क्योंकि पहिला ज्ञान उसमें विषयरूपसे ही प्रतिभासित हुआ है इसलिये सामान्यरूपसे जब हूँ दोनों ज्ञानों में विषयस्वरूपता है तब फिर पहिला ज्ञान और उस ज्ञानके जानने के लिये जो दूसरा ज्ञान " माना है वह, इस तरह दोनों ज्ञान एक हो जाते हैं, कोई प्रकारका भेद सिद्ध नहीं होता इसलिये ज्ञानको परसंवेद्य न मानकर अपना और पर पदार्थोंका जाननेवाला मानना ही ठीक है । और भी यह वात SAMACHARPARDAROPATHMANCE स्मृत्यभावप्रसंगश्च ॥५॥ जो पदार्थ पहिले निश्चित किया जा चुका है उसीका 'वह' यह स्मरण और यह वही है। यह । २५५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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