SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त०रा० २४३ पडेगी इसरीति से जब प्रमाणकी स्वतः और परतः सिद्धि बाधित है तब प्रमाण पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता ? सो ठीक नहीं। जिसतरह दीपक घट पट आदि पदार्थोंको भी प्रकाशित करता है और अपने को भी प्रकाशित करता है उसे अपने प्रकाशन करनेमें अन्य दीपककी आवश्यकता नहीं पडती उसी तरह प्रमाण भी दूसरे घट पट आदि पदार्थों को भी जानता है और अपने को भी जानता है किंतु उसे अपने जानने के लिये दूसरे किसी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं पडती इसरीतिसे दीपक के समान प्रमाणके होनेसे उसकी स्वतः वा परतः सिद्धिका विकल्प उठाकर जो अनवस्था दोष दिया गया था वह नहीं हो सकता । अथवा यह भी दूसरा अर्थ हो सकता है एक पदार्थमें अनेक विरुद्ध धमका रहना भी अनवस्था कहा जाता है क्योंकि अनवस्थाका अर्थ | अनिश्चय है जहां पर अनेक विरुद्ध धर्म रहते हैं वहां कोई निश्चय नहीं हो सकता । प्रमाण शब्दको भाव, कर्ता और करण साधन माना है और उसका आधार एक ही आत्मा पदार्थ इसलिये भाव साधन आदि अनेक विरुद्ध धर्मोका आधार आत्मा होनेसे फिर भी अनवस्था दोष आता है ? सो ठोक नहीं । 'प्रदीपनं प्रदीपः' प्रकाशमात्र दीपक है यह भावसाधन, 'प्रदीपयति इति प्रदीपः' जो पदार्थों को प्रकाश करे वह दीपक है यह कर्तृसाघन, एवं 'प्रदीप्यते इति प्रदीप' जिसके द्वारा प्रकाशित हो वह प्रदीप है। यह करणसाधन इसप्रकार एक ही दीपक जिसतरह भाव कर्ता और करणसाधन तीनो रूप माना जाता है - उसे भाव आदि माननेमें किसीप्रकारका विरोध नहीं उसीप्रकार 'प्रमाणमात्रं प्रमाणं' प्रमितिस्वरूप प्रमाण है । 'प्रमिणोतीति प्रमाणं' पदार्थोंको जाने वह प्रमाण है 'एवं प्रमीयते इति प्रमाणं' जिसके द्वारा जाना जाय वह प्रमाण है इसप्रकार प्रमाणको भी भाव, कर्ता, करणसाधन मानने में कोई विरोध नहीं । भाषा, २४३
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy