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________________ मापा Hereview है और करण तीनों अर्थ हैं और अनेकांतवादमें तीनों ही अर्थोंका संभव और प्रामाण्य है । यदि यहां पर यह कहा जाय-कि- . . .. अनवस्थेति चेन्न दृष्टत्वात्प्रदीपवत् ॥ २॥ जिसतरह प्रमाणसे प्रमेयकी सिद्धि आवश्यक मानी गई है उसी प्रकार प्रमाणकी सिाद्ध भी माननी है ₹ होगी वहांपर ये कल्प उठते हैं कि वह प्रमाणकी सिद्धि किसी परपदार्थसे मानी जायगीवा स्वतः ही मानी ६ हूँ जायगी! यदि यह कहा जायगा कि जिसतरह पदार्थों की सिद्धि प्रमाणसे होती है उसीतरह प्रमाणकी हूँ हैं सिद्धि भी दूसरे प्रमाण होती है तो अनवस्था दोष होगा क्योंकि पदार्थों को निश्चय करानेवाले प्रमाण है है की सिद्धि यदि दूसरे किसी प्रमाणसे मानी जायगी तो उस प्रमाणकी सिद्धि भी अन्य प्रमाणसे मानी है जायगी, उसकी भी अन्य प्रमाणसे मानी जायगी इसतरह अनेक अप्रमाणीक प्रमाण पदार्थों की कल्पना * करनी पडेगी, अप्रमाणीक अनेक पदार्थों की कल्पना करना ही अनवस्था कही जाती है। यदि अनवस्था ५ दोषकी निवृचिकेलिये यह कहा जायगा कि प्रमाणही स्वतः सिद्धि ही मानेंगे तब भी यह दोष दिया जा हूँ सकता है कि जिस तरह प्रमाणकी मिद्धि स्वतःमानी जायगी उसतरह प्रमेयकी सिद्धि भी स्वतःमाननी हूँ चाहिये, उसकी सिद्धिकेलिये प्रमाणकी कल्पना करना व्यर्थ है। यदि यह कहा जायगा कि हम प्रमेयकी & सिद्धि प्रमाणसे मानेगे और प्रमाणकी स्वतः सिद्धि मानेंगे यह हमारी इच्छा है । सो भी ठीक नहीं। इच्छा किसी कार्यकी सिद्धिमें विशेष हेतु नहीं मानी जाती । यदि इच्छाको विशेष हेतु माना जायगा 2 तो जो मनुष्य अपनी इच्छासे किसी विपरीत बातको मानते हैं उनकी विपरीत बात भी यथार्थ माननी १ अनवस्थाका लक्षण ऊपर कह दिया गया है। Hornhertentuarenten B २४२ ALAN
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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