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________________ यह कहा जा सकता है कि श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक होता है अथवा मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका आधार एक है यदि दोनों को एक माना जायगा तो यह व्यवहार नहीं बन सकता इसलिये कारणके समान कार्यका होना और एक जगह दोनोंका एक साथ रहना ये दोनों वातें जब मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंको भिन्न सिद्ध करनेवाली हैं तब वे दोनों एक नहीं कहे जा सकते । यदि यहां पर यह कहा जाय कि विषयाविशेषादिति चेन्न ग्रहणभेदात् ॥ २९ ॥ 'मतिश्रुतयोर्निबंघो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषयनियम द्रव्योंके थोडे पर्यायों में है, इस सूत्र से सूत्रकार ने मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषयनियम समानरूपसे बतलाया है इस नीतिसे मति और श्रुतज्ञान दोनोंका विषय अभिन्न है तब दोनों अभिन्न ही हुए इसलिये दोंनों में एक ही कहना चाहिये, दोके कहने की कोई आवश्यकता नहीं ? सो भी कहना ठीक नहीं। दोनोंका विषय ग्रहण करनेमें भेद है । मतिज्ञान अन्य रूपसे विषयों को ग्रहण करता है और श्रुतज्ञान अन्यरूपसे ग्रहण करता है यदि इस प्रकारका विषय अभेद मानकर मतिज्ञान श्रुतज्ञानको एक कह दिया जायगी तब जो घट आंख से देखा जाता है वही हाथ से छूआ भी जाता है। दोनों इंद्रियों का विषय एक ही घट है फिर नेत्र और स्पर्शन दो इंद्रियां न मानकर एक ही इंद्रिय माननी चाहिये' वा नेत्र से देखने को दर्शन कहा जाता है। और हाथ आदिसे छूने को स्पर्शन कहते हैं जब दोनों का विषय एकसा है तब दर्शन और स्पर्शन दोके माननेकी आवश्यकता नहीं, दोनों में एक किसीको मान लेना चाहिये परंतु सो बात नहीं, यद्यपि दर्शन और स्पर्शनका विषय एक है तो भी दोनोंका उस विषयको ग्रहण करनेका प्रकार जुदा जुदा है इसलिये भां २३६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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