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________________ भाषा तरा आगे सूत्रकार ने कहा है जो पदार्थ एक है उसमें एक आगे और एक पीछे यह विभाग नहीं हो सकता ॥ परंतु मतिज्ञान पहिले और श्रुतज्ञान पीछे होता है यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें विभाग है इसलिये २३५ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एक नहीं हो सकते । यदि यहांपर यह शंका की जाय कि तत एवाविशेषः कारणसदृशत्वाद्युगपद्वृत्तश्चेति चेन्नात एव नानात्वात् ॥ २८॥ ___जो कार्य होता है वह कारणके समान वा कारणस्वरूप ही होता है जिस तरह सफेद आदि तंतु-12 HP ओंका कार्य पट है इसलिये वह सफेद आदि तंतु स्वरूप ही है। श्रुतज्ञान भी मतिज्ञानका कार्य है इस- 12 लिये वह भी मतिस्वरूप ही है मतिसे भिन्न नहीं कहा जा सकता इस रीतिसे श्रुतज्ञानको मतिज्ञान पूर्वक कहनेसे ही दोनोंमें एकता सिद्ध हो जाती है तथा जिन पदार्थों का किसी एक पदार्थमें एक साथ || झा रहना होता है वे एक माने जाते हैं जिस तरह अग्निमें उष्णपना और प्रकाश एक साथ रहते हैं इस- 18/ लिये वे अग्निस्वरूप ही माने जाते हैं। जिससमय आत्मामें सम्यग्दर्शनकी प्रकटता होती है उससमय र है मति और श्रुतको सम्यग्ज्ञानके नामसे कहा जाता है इसलिये अग्निमें उष्णपन और प्रकाशके समान से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एक ही हैं भिन्न नहीं ? सो भी अयुक्त है । कारणकी समानता और एक जगह एक साथ रहना ये दोनों वातें भी भिन्न पदार्थों में ही होती हैं क्योंकि कारण और कार्य दोनों। पदार्थ भिन्न हैं इसीलिये यह कहा जाता है कि कार्य, कारणस्वरूप होता है। यदि दोनों एक होते तो यह भेदद्योतक व्यवहार हो ही नहीं सकता तथा अग्निमें प्रताप और प्रकाश दोनों भिन्न हैं इसलिये || यह कहा जाता है कि वे दोनों अग्निस्वरूप हैं यदि अभिन्न होते तो दोनोंका जुदा जुदा उल्लेख कर ||६||२३. दोनों अग्निस्वरूप नहीं कहे जाते । मति और श्रुत भी दोनों मिन्न भिन्न माने जायगे तभी उनमें ASSSSVDC-SANGHASANSAR SSCReceBORESCOREGAMAAREERCESCR55
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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