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BIRDINESHABArkesvi-SHESeewana
" तेनैव सह निर्वाणाञ्च ॥२४॥ ....... मतिज्ञान आदि-जो-चार ज्ञान हैं वे क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। केवलज्ञान अकेला क्षायिक ज्ञान है।
मोक्षकी जो प्राप्ति होती है वह केवलज्ञानके द्वारा ही होती है अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंके द्वारा मोक्ष 3 नहीं होती इसलिये यह सब ज्ञानोंकी अपेक्षा केवलज्ञानमें ही उत्कृष्टता रहनेके कारण सव ज्ञानों के अंतमें 5 केवलज्ञानका पाठ रक्खा है। शंकामतिश्रुतयोरेकत्वं साहचर्यादेकत्रावस्थानाच्चाविशेषात् ॥ २५ ॥ नातस्तत्सिद्धेः ॥ २६ ॥
तत्पूर्वकत्वाच्च ॥२७॥ जहां जहां मतिज्ञान है वहां वहां श्रुतज्ञान है एवं जहां जहां श्रुतज्ञान है वहां वहां मतिज्ञान है इस है 2 रूपसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका साहचर्य है दोनोंमें एकके विना दूसरा नहीं रहता तथा दोनोंका आ-" ॐधार भी एक ही है। दोनोंमेंसे एक भी सिवाय आत्माके अन्यत्र नहीं रहता इसरीतिसे जब दोनोंका ॐ आपसमें साहचर्य और सामानाधिकरण्य संबंध है इसलिये दोनों ज्ञानोंका समान विषय एवं समान आधार % होनेसे कोई भेद नहीं है ऐसी अवस्थामें दोनों एक रूप ही पडते हैं फिर मति और श्रुत दो ज्ञान न कह हूँ कर एक ही कोई ज्ञान कहना ठीक है ? सो नहीं। जिन पदार्थों के विशेष भिन्न भिन्न रूपसे निश्चित हैं
और,उनके कारण जो आपसमें भिन्न हैं उन्हींका साहचर्य और सामानाधिकरण्य संबंध प्रसिद्ध है किंतु जो एक है उसमें उक्त दोनों संबंध नहीं घट सकते । मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका साहचर्य और समाना. घिकरण्य सिद्ध है इसीलिये वे दोनों ही भिन्न भिन्न ज्ञान हैं। एक नहीं हो सकते। इसलिये उन दोनोंके एकत्वकी शंका करना व्यर्थ है। तथा "श्रुतं मतिपूर्वमित्यादि" श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, यह
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