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| दोनों को एक नहीं कहा जा सकता। इस रूपसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय एक होनेपर भी दोनों का उस विषयको ग्रहण करनेका प्रकार जुदा जुदा है इसलिये दोनों एक नहीं कहे जा सकते । यदि फिर भी यह शंका की जाय कि
उभयोद्रिया नंद्रियनिमित्तत्वादिति चेन्न असिद्धत्वात् ॥ ३० ॥
जिस तरह मतिज्ञान इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होता है उसी तरह श्रुतज्ञान भी इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होता है क्योंकि इंद्रिय और मनसे मतिज्ञानकी उत्पत्ति सर्वानुभव सिद्ध है और श्रुतज्ञान वक्ता के कहने पर और श्रोता के सुननेपर उत्पन्न होता है इसलिये वक्ताकी जिह्वा और श्रोताके कान एवं मन श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में भी कारण है । यह नियम है जिसके उत्पादक कारण समान होते हैं वह एक ही माना जाता है उसमें भेद नहीं होता । मति और श्रुतज्ञान के उत्पादक कारण एक हैं इसलिये वे भी आपस में भिन्न नहीं हो सकते इस रीति से कारणों के अभेदसे मति और श्रुतज्ञानमें कोई एक ही मानना चाहिये दो मानने की कोई आवश्यकता नहीं ? सो ठीक नहीं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक हैं क्योंकि दोनों ही इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होते हैं यहांपर 'इंद्रिय और मनसे होना' रूप हेतु असिद्ध है क्योंकि जिह्वा और कानको श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण बतलाया है सो जिह्वा तो शब्दका जो उच्चारण करता है उसीमें कारण है, श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में कारण नहीं । कान भी अपनेसे होनेवाले मतिज्ञानकी उत्पत्ति कारण है श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में कारण नहीं इसलिये श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में दो इंद्रियों को कारण बताकर एवं श्रुतज्ञानको मतिज्ञानके समान इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला सिद्ध कर जो दोनोंको एक सिद्ध करना चाहा था वह मिथ्या ठहरा क्योंकि उक्त दोनों इंद्रियां श्रुतज्ञानकी उत्पत्चिमें निमित्त न
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