SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनमें यदि रूपी पदार्थका विचार हो रहा होगा तभी मन:पर्ययज्ञानी उसके मनकी बात जान सकता १०रा० है किंतु यदि वह पर मनुष्य किसी अमूर्तिक पदार्थका चिंतवन करेगा तो मनःपर्ययज्ञानी उसके मनकी बात नहीं जान सकता। इसीतसे परके मनमें स्थित रूपी पदार्थको प्रतीति कर वा आश्रय कर मनःपर्य यावरणके क्षयोपशम आदि अंतरंग वहिरंग कारणोंके द्वारा जो दुसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको 5 जान लेना है वह मनःपर्ययज्ञान है यह खुलासा रूपसे मनःपर्ययज्ञानका अर्थ है। यदि यहांपरं यह शंका | की जाय कि मतिज्ञानप्रसंग इति चेन्नापेक्षामात्रत्वात ॥५॥ ऊपर मनसे मतिज्ञानकी उत्पचि कह आए हैं। यदि मनःपर्ययज्ञानमें भी मनका निमिच मानाजायगा है तो फिर मनःपर्ययज्ञानको मतिज्ञान ही कह देना पडेगा। आगमका भी यह वचन है कि मनके द्वारों; मनको आश्रय कर जो ज्ञान होता है वह मनःपर्ययज्ञान है इसरीतिसे मनके निमिचसे मनःपर्ययज्ञानकी 5 उत्सचि मानने पर वह मतिज्ञान ही कहा जासकेगा मन:पर्ययज्ञान जुदा सिद्ध नहीं हो सकता? सो ठीक नहीं। अभ्रे चंद्रमसं पश्य' आकाशमें चंद्र देखो यहांपर आकाशका कहना जिसतरह अपेक्षामात्र है 18 यदि आकाशको न कहा जाय, चंद्र देखो' इतना ही कहा जाय तब भी चद्रमाका ज्ञान हो सकता है र उसीतरह मनःपर्ययज्ञानमें भी मनका निमित्च अपेक्षामात्र है । "विना मनको निमिच मान मनःपर्ययज्ञान होगा ही नहीं, यह बात नहीं। तथा जिसतरह मतिज्ञान मनका कार्य है मनकी सहायतासे ही होता है उसतरह मनःपर्ययवान मनका कार्य नहीं किंतु मनःपर्ययज्ञानकी उत्पचिमें आत्माकी विशुद्धता ही निमिचकारण है। आत्माकी विशुद्धिके बिना मनःपर्ययज्ञान हो ही नहीं सकता। ARRECEBSTERIHSRECORRECRUGREEK RANSFREEPRESSISATERIALER Sarsal
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy