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________________ SAJAISA तो चारों ज्ञानोंका है अर्थात् पांच इंद्रिय और मनसे जो मतिज्ञान होता है वह भी मर्यादारूपसे होता है | श्रुतज्ञानकी भी मर्यादा है एवं मनःपर्यायज्ञान भी दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थों को जानता है, इसलिए यहां पर भी मयादा है । यदि मर्यादितरूपसे पदार्थोंका जानना अवधिज्ञान कहा जायगा तो मति आदि ज्ञानों को भी अवधिज्ञान कहना पडेगा ? सो ठीक नहीं । जिसतरह गौ शब्द के पृथ्वी वाणी गाय आदि अनेक अर्थ होते हैं तो भी रूढ़िवलसे गाय ही अर्थ लिया जाता है उसतिरह मर्या दित रूपमे जानना यद्यपि सभी ज्ञानों का विषय है तो भी रूढ़िवलसे मर्यादितरूप से पदार्थों को जानना अवधिज्ञान ही कहा जाता है, अन्य ज्ञान नहीं । मनः प्रतीत्य प्रतिसंघाय वा ज्ञानं मनः पर्ययः ॥ ४ ॥ मन:पर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम और वीयतरायका क्षयोपशम आदि अंतरंग वहिरंग कारणोंके द्वारा दूसरेके मनमें स्थित पदार्थका जान लेना मन:पर्ययज्ञान कहा जाता है । जिसतरह मति आदि शब्दोंको कर्तृसाधन करण साधन और भावसाधन बतला आए हैं उसीतरह 'मनः पर्येति परीयते पर्ययमात्रं वा मनःपर्ययः' इसतरह मनः पर्यय शब्दको भी कर्ता करण और भावसाधन मान लेना चाहिए । मनको प्रतीति कर वा आश्रय कर जो ज्ञान होता है वह मन:पर्ययज्ञान कहलाता है यह जो व्युत्पाच सिद्ध मन:पर्ययज्ञानका अर्थ है यहांपर मन शब्दसे पर के मनमें स्थित पदार्थका ग्रहण है, क्योंकि आधार में रहनेवाला आधेय पदार्थ भी आधार के नामसे कह दिया जाता है यह व्यवहार है । यहांपर दूसरेके मनमें स्थित पदार्थ आधेय और मन आधार है तो भी उस पदार्थको मनके नाम से पुकारने में कोई हानि नहीं । तथा वह परके मनमें रहनेवाला पदार्थ घट आदि रूपी पदार्थ ग्रहण किया गया है अर्थात् परके MI PALE भात २१४
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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