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________________ व०रा० माया २१३ है और जिसके द्वारा सुना जाय वह श्रुत है यह उसका अर्थ है । यहाँपर करण होनेसे श्रुतज्ञान भिन्न जान ||६|| पडता है तो भी कथंचित् भेद पक्षके अवलंबनसे कोई दोष नहीं। 'श्रवण मात्रंवा श्रुतं' यह भावसाधन || व्युत्पचि है। सुनना-जानना रूप यह उसका अर्थ है।। अवपूर्वस्य दधातेः कर्मादिसाधनः किः॥३॥ . . .. __ अब उपसर्ग पूर्वक धा धातुसे कर्म करण और भाव तीनों अर्थों में कि प्रत्यय करने पर अवधि शब्द । सिद्ध होता है। अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम और वीयर्यातरायका क्षयोपशम आदि अंतरंत बहिरंग | कारणोंके रहते जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाय वा जो पदार्थों को जाने अथवा पदार्थों का जाननास्वरूप ही जिसका स्वभाव हो वह अवधि-अवधिज्ञान कहा जाता है यह कर्ता करण और भाव तीनों अर्थों की | अपक्षा अवधिशब्दका व्युत्पचिपूर्वक अर्थ है। जिसतरह अधाक्षेपणं अवक्षेपणं नीचे गिरना अवक्षेपण | कहा जाता है उसीतरह अवधिज्ञानका अर्थ भी अधोलोकके पदार्थों का जानना है इसरीतिसे अधोलोकके || बहुतसे पदार्थोंको जोज्ञान विषय करे वह अवधिज्ञान कहा जाता है। “यद्यपि अवधिज्ञानवाला मर्यादित &|| रूपसे कुछ ऊपरके पदार्थों को भी जान सकता है परंतु बहुत थोडा किंतु अधिक रूपसे अधोलोकके | Filपदार्थों को ही जान सकता है इसलिए 'अधोलोकके बहुतसे पदार्थों को जो ज्ञानविषय करे वह अवधिज्ञान | है' यह लक्षण प्रधानताकी अपेक्षा किया गया है।" अथवा | अवधिका अर्थ मर्यादा भी है। जो मर्यादित रूपसे पदार्थों को विषय करे वह अवधिज्ञान है। इसी ६ अध्यायके 'रूपिष्ववधेः' अवधिज्ञानका विषय रूपी पदार्थ है, इस सचाईसवें सूत्रमें अवधिज्ञानके मर्यादित | विषयका वर्णन किया गया है। यदि यहांपर यह कहा जाय कि केवलज्ञानके सिवाय मर्यादित विषय R ECOGNOUGUSAGROct ANSACTERISTICATIOBACHEts SECREG4rSCREEMEDIEOG
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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