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मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानं ॥ ९ ॥
मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच भेद सम्यग्ज्ञानके हैं। मंति आदि शब्दों का व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थ यह है
मतिशब्दो भावकर्तृकरणसाधनः ॥ १ ॥
ज्ञानार्थक मनु धातुसे भावसाधन अर्थ में क्ति प्रत्यय करने पर मति शब्द सिद्ध हुआ है और मननं मतिः, मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमसे इंद्रिय और मनकी सहायतासे जो पदार्थों का जानना है वह मति है । इसीतरह उदासीनता से जहां बाहुल्यकी अपेक्षा पदार्थोंका स्वरूप कहा जाता है वहां पर 'मनुतेऽर्थान्' पदार्थों को जो जाने वह मति है यह कर्ता अर्थमें मति शब्द की व्युत्पत्ति है । इसीतरह जहां पर कथंचित् भेद और अभेदकी विवक्षा है वहांपर 'मन्यतेऽनेनेति मतिः' जिसके द्वारा पदार्थ जाने जांय वह मति है यह करण अर्थमें व्युत्पत्ति है। यहांपर ज्ञान करण है और आत्मा कर्ता है परंतु आत्मा से ज्ञानको कथंचित् भिन्न वा कथंचित् अभिन्न मानने पर कोई दोष नहीं है ।
श्रुतशब्दः कर्मसाधनश्च ॥ २ ॥
श्रुतज्ञानावरण वा नोइंद्रिय (मन) आवरण के क्षयोपशम आदि अंतरंग वहिरंग कारणोंके मौजूद रहते जिसके द्वारा सुना जाय- श्रुतज्ञानका विषय किया जाय वह श्रुतज्ञान है । यहाँ पर श्रुतशब्दकी कर्ता करण और भाव अर्थ में व्युत्पत्ति समझ लेनी चाहिए । 'शृणोतीति श्रुतं' यह श्रुत शब्दका कर्तृसाधन व्युत्पत्ति है और श्रुतज्ञानरूप परिणत आत्मा ही पदार्थोंको सुनता है यह उसका अर्थ है | जिससमय श्रुतज्ञानको आत्मासे कथंचिद्भिन्न माना जायगा उससमय 'श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं' यह करण साधन व्युत्पत्ति
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भाषा
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