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________________ 5 ' वाह्याभ्यंतरराक्रियाविशेषात् यदर्थं केवते तत्केवलं ॥ ६ ॥ जिस ज्ञान की प्राप्तिकेलिए मन वचन काय तीनों योगोंके निरोधपूर्वक वाह्य और अभ्यंतर तपका आराधेन किया जाता है वह केवलज्ञान है अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान तो साधारण हैं प्राणिमात्र प्रतिसमय विद्यमान रहते हैं इसलिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में तपंकी जरा भी आवश्यकता नहीं पडती । अवधिज्ञान के लिए भी खास रूपसे तपकी आवश्यकता नहीं, देव आदिको वा तीर्थंकर आदिको तपके बिना ही अवधिज्ञान हो जाता है । मन:पर्ययज्ञान में भी यह बात नहीं कि वह तप तपने से ही हो किंतु दीक्षा लेते समय परिणामों की विशुद्धता से मन:पर्ययज्ञान हो जाता है। किंतु केवलज्ञान अनशन अवमोदर्य आदि बाह्यतप और प्रायश्चित विनय आदि अंतरंग तंप इन दोनों प्रकार के तपको विना आराधन किये नहीं प्राप्त हो सकता, इसीलिये केवलज्ञान की उत्पत्ति बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार के तपोंको प्रधानतासे कारण बतलाया है । अथवा अव्युत्पन्नोवाऽसहायार्थः केवलशब्दः ॥ ७ ॥ देवदत्त केवल अन्नको खाता है यहांपर केवलका अर्थ असहाय रहने के कारण अन्न जिसतरह अन्य व्यंजनों की सहायता रहित असहाय माना जाता है उसीतरह केवलज्ञानमें जो केवल शब्द है उसका भी अर्थ असहाय है और मतिज्ञान आदि क्षायिक ज्ञानों की सहायता रहित केवलज्ञान असहाय ज्ञान कहा जाता है इस रीति से असहाय अर्थको कहनेवाला केवल शब्द अव्युत्पन्न रूढिसे है व्युत्पत्तिसिद्ध नहीं । करणादिसाधनो ज्ञानशब्दो व्याख्यातः ॥ ८ ॥ 'जानाति ज्ञायते ज्ञानमात्रं वा ज्ञानं' जो जाने, जिससे जाना जाय और जो जाननास्वरूप हो भाषा: २१६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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