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________________ AURRORSCRECEISASRHANDRROPERAL है इसलिये वह द्रव्यस्वरूप नहीं कही जा सकती इस रातिसे भावका द्रव्यके साथ कथंचित् भेदाभेद ही 9 अनुभवमें आता है । इसप्रकार अनेकांतके आश्रयसे भी कोई दोष नहीं आता। तथा अतस्तत्सिद्धेः ॥२४॥ 'वादी जिस युक्तिसे नाम आदि निक्षपोंका आपसमें विरोध कहकर उनका अभाव कहना चाहता है उसीसे उनका अभाव नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि विरोधके तीन भेद हैं-वध्यघातक, सहानव स्थान है और प्रतिबध्यप्रतिबंधक । एक पदार्थ नाश करनेवाला हो और दूसरा उससे नष्ट होनेवाला हो ऐसी है जगह बध्यघातक विरोध होता है जिस तरह काक उल्लूको मार डालता है अथवा नौला सांपको मार डालता है जल अग्निको बुझा देता है इसलिये यहांपर वध्यघातक विरोध कहा जाता है। एक साथ जो दो पदार्थ न रह सकें जिसतरह एक ही स्थानपर जब छाया रहती है तब धूप नहीं, जब धूप रहती 9 है तब छाया नहीं अथवा एक ही आममें जब कच्ची अवस्थामें हरा रंग रहता है तब पीला नहीं रहता और जब पीला रंग होता है तब हरा नहीं रहता यह सहानवस्थान नामका विरोध है । एक टू कार्यका रोकनेवाला हो दूसरा रुक जानेवाला हो जिस तरह एक चन्द्रकान्त नामकी मणि होती है यदि है जलती हुई अग्निके सामने उसे रख दिया जाता है तो अग्निका जलना बंद हो जाता है यह प्रतिवध्यप्रतिबंधक नामका विरोध है । वादी नाम आदि निक्षेपोंमें सहानवस्थान नामका विरोध बतलाता है क्योंकि उसका कहना है कि जिस समय कोई शब्दका अर्थ नामस्वरूप कहा जायगा वह स्थापना स्वरूप नहीं हो सकता और जब स्थापनास्वरूप कहा जायगा तब नामरूप नहीं हो सकता परन्तु जिसतरह वध्यघातक विरोध विद्यमान पदार्थोंका ही होता है जो पदार्थ आजतक देखने सुनने में ही ARRESSISTRISGREIGHTNERISPRORLSTARE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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