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________________ सरा ARBARAGAOBREASANSAR अर्थ-जिस वादीका यह कहना है कि जोनाम है वह नाम ही माना जा सकता है स्थापना नहीं उसने यथार्थ वातको समझा ही नहीं? हमारे कहनेका यह तात्पर्य ही नहीं कि नाम ही स्थापना माना जायगाड़ी |किंतु हम यह कहते हैं एक ही पदार्थका नाम स्थापना द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपोंसे व्यवहार होता हा है इसलिये हमारे कहनेमें उपर्युक्त कोई दोष नहीं लागू हो सकता। और भी यह बात है कि अनेकांताच ॥ २२ ॥ मनुष्यब्राह्मणवत् ॥ २३ ॥ एकांतरूपसे हमारी यह कोई हठ भी नहीं कि नाम ही स्थापना है वा नहीं है। अथवा स्थापना ही नाम है वा नहीं है क्योंकि जिसतरह ब्राह्मण जाति, मनुष्यजातिस्वरूप है मनुष्यजातिसे भिन्न नहीं, इसलिये ब्राह्मण, मनुष्य कहा जाता है, किंतु मनुष्य, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि सब जाति स्वरूप है। K|| मनुष्यके कहनेसे सभी जातियोंका एक साथ ज्ञान होता है इसलिये वह ब्राह्मण कहा भी जा सकता है। और नहीं भी। उसीप्रकार विना नामके स्थापना नहीं हो सकती इसालये स्थापना तो नाम कह दी जा | सकती है परन्तु नाम स्थापनास्वरूप भी दीख पडता है और जिस नाममें स्थापनाका सम्बन्ध नहीं वह विना स्थापनाके अकेला भी दीख पडता है इसलिये वह स्थापना स्वरूप भी कहा जाता है और.विना II | स्थापनाके भी कहा जाता है । तथा-द्रव्यार्थक नयकी अपेक्षा द्रव्य, भावरूप पर्यायसे भिन्न नहीं है। | भावस्वरूप ही है इसलिये द्रव्य ही भाव कह दिया जाता है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्य भाव || || पर्यायसे भिन्न है इसलिये द्रव्य, भाव पर्यायरूप नहीं कहा जाता इस रीतिसे द्रव्यका भावके साथ कथंचित् भेदाभेद ही अनुभवमें आता है एवं द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा भाव पर्याय द्रव्यसे जुदी, नहीं है ||७|| | इसलिये वह द्रव्यस्वरूप कही जाती है और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा भावपर्याय भिन्न और द्रव्य भिन्न PROGRESSISGUSARBARIRSAUR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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