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________________ ECORRES RSSPARENDR वह सर्वथा परके निमित्तसे अर्थात् मध्यमाके भेदसे ही जायमान नहीं है यदि मध्यमाकी सामर्थ्यसे ही प्रदेशिनीको छोटा माना जायगा तो उसकी सामर्थ्य से छोटापन शशाके सींग और इंद्रकी मुट्ठीमें भी मानना पडेगा क्योंकि स्वतः छोटापन तो किसी भी अंशमें माना नहीं गया सर्वथा परानीमत्तक ही 8 माना है। मध्यमासे सर्वथा पर जिसप्रकार प्रदेशिनी है उसप्रकार शशविषाण और इंद्रमुष्टि भी है इस % लिए मध्यमाकी अपेक्षा जिसप्रकार प्रदेशिनीमें हस्वता है उसीप्रकार शशाके सींग और इंद्रकी मुट्ठीमें भी |६| , हो सकती है। यदि कदाचित यह कहा जाय कि मध्यमाकी अपेक्षा प्रदोशनीमें जो इस्वता है वह स्वतः हू है कारणक है परनिमिचक नहीं सो भी अयुक्त है क्योंकि जिस किसी पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है वह है परकी अपेक्षासे होती है स्वतः किसीकी भी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । प्रदेशिनीमें जो छोटापन है, उसकी आभिव्यक्ति मध्यमाकी अपेक्षा है इसलिये स्वयं भी किसी पदार्थकी उत्पचि वा अभिव्यक्ति नहीं सिद्ध हो सकती किंतु यह द्रव्य अनंतपर्याय स्वरूप है । जैस सहकारी कारण मिलते जाते हैं उनके अनुसार वैसे ही वैसे स्वरूपोंको यह धारण करता चला जाता है इसलिए यही निश्चित बात है कि डू पदार्थको प्रकटता न तो स्वयंकारणक है और न परनिमिचक है किंतु कथंचित् स्वतः और कथंचित् परतः है । इसरीतिसे जिसप्रकार एक भी पुदल द्रव्य भिन्न भिन्न सहकारी कारणों की अपेक्षा अनंतपर्याय स्वरूप हो जाता है उसीप्रकार एक भी. आत्मा कर्म और नोकर्मके विषयभूत पदार्थोंके भिन्न संबंघोंसे हैं जायमान जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान रूप अपने 'भेदोंसे अनंत पर्यायस्वरूप है और भी यह बात है २११० अन्यापेक्षाभिव्यंग्यानेकरूपोत्कर्षापकर्षपरिणतगुणसंबंधित्वात् ॥१०॥ । me
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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