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________________ FASANSAR अध्याय पापा जिस प्रकार एक ही घट एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात अंनत अवस्था स्वरूप कभी आधिक तो कभी हीन ऐसे रूप रस आदि परिणामोंका धारक जो विपक्षी द्रव्य उसकी अपेक्षारूप सहकारी कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले नील नीलतर (उससे आधिक नील) नौलतम (उससे भी अधिक नील) आदि है निजी अनंत परिणामस्वरूप है उसीप्रकार एक भी जीव परद्रव्योंके संबंधसे जायमान, तीत्र, तीव्रतर | आदि विशेष अवस्थास्वरूप क्रोध मान आदि कषायोंके अनंत अविभाग प्रतिछेदस्वरूप परिणत | | होने के कारण अनेकस्वरूप है। और भी यह बात है अतीतानागतवर्तमानकालसंबंधित्वात् ॥१४॥ कोई एक पदार्थ नष्ट होगया है और उसकी उत्पचि होनेवाली है वहांपर समुदाय वा अवयवके नाशको विषय करनेवाला भूतकाल है क्योंकि पदार्थका नाश भूतकालमें हुआ है । उत्पचि और उसे | जाननेकी संभावनाको विषय करनेवाला भविष्यत् काल है और उस कार्यकी उत्पचिकेलिये जो अवि| राम रूपसे प्रयत्न चल रहा है वह विषय वर्तमान कालका है इसरीतिसे जिसप्रकार मिट्टी आदि द्रव्य भूत, शभविष्यत, वर्तमान तीनो कालोंमें भिन्न भिन्न स्वरूप होनेसे भेद स्वरूप दीख पडती है। यदि यहांपर भूत भविष्यत् कालको न मानकर केवल वर्तमान काल ही माना जायगा तो जिसप्रकार वांझ के पुत्रकी है। युवावस्था बाधित है क्योंकि जब पुत्र ही नहीं तब उसकी युवावस्था संभवित नहीं हो सकती उसी प्रकार वर्तमान कालका भी अभाव मानना होगा क्योंकि भूत और भविष्यत् कालके अभावमें वर्तमान है कालकी अवधिका भी सद्भाव नहीं हो सकता इसलिये भूत भविष्यत् कालके अभावमें वर्तमान कालकी सचा सिद्ध नहीं हो सकती उसीप्रकार जीव भी अनादि भूत कालके संबंधसे जायमान, भविष्यत् १४५ SUBBABBASIRABARI BRUAECHBABASSAD A BASAHE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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