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________________ DRUGRAMINOSPUR PRASHTRA आविजयादिभ्योऽधिकारः॥२॥ आरणाच्युता इत्यादि सूत्रमें सर्वार्थसिद्धि विमानका पृथक् उल्लेख किया गया है इसलिये उसकी 5 अध्याय सामर्थ्यसे यह विजय आदि अनुचरपर्यंत अधिकार है अर्थात् विमानोंमें जो साधिक स्थितिका विधान माना है वह विजय वैजयंत जयंत और अपराजित पर्यंत समझ लेना चाहिये । यदि यहां पर यह कहा हूँ है जाय कि ___ अनंतरेत्यवचनं पूर्वोक्तरिति चेन्न व्यवहिते पूर्वशब्दप्रयोगात् ॥ ३॥ परतः परतः पूर्वा पूर्वा इत्यादि सूत्रमें पूर्व शब्दका उल्लेख किया गया है उसीसे आनंतर्य-व्यवधानरहितपना अर्थ निकल आता है अर्थात् पहिले पहिले स्वर्गोंकी उत्कृष्ट स्थिति आगे आगेके स्वर्गों में * जघन्य स्थिति हो जाती है, यह स्पष्ट अर्थ हो जाता है आनंतर्य शब्दके कहनेकी कोई आवश्यकता ६ नहीं। सो ठीक नहीं। यदि अव्यवहित अर्थमें ही पूर्व शब्दका प्रयोग होता तब तो 'अनंतरा' शब्दके 5 हूँ उल्लेखकी सूत्रमें कोई आवश्यकता नहीं थी किंतु उसका प्रयोग तो व्यवहित अर्थात् जहाँपर पदार्थोंका हूँ व्यवधान होता है वहांपर भी दीख पडता है जिस तरह पूर्व मथुराया: पाटलिपुत्र' मथुरासे पटना पहिले है है यहाँपर मथुरासे पाटलिपुत्र अव्यवहित पूर्व नहीं किंतु वीचमें अनेक गांव नदी पहाड आदिका व्यव। धान है इसलिए अव्यवहित अर्थकी सिद्धिके लिये सूत्रमें अनंतर शब्दका उल्लेख करना अत्यावश्यक है। इसरीतिसे सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें जो उत्कृष्ट स्थिति है वह सानत्कुमार माहेंद्र स्वर्गमें ही जघन्य मानी जा सकती है किंतु ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तरमें वह जघन्य नहीं मानी जा सकती यदि ६ सूत्रमें अनंतर शब्दका उल्लेख नहीं होता तो ब्रह्मलोक और ब्रह्मोचरसे पूर्व सौधर्म और ऐशान स्वर्ग BOSSREPRESS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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