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अध्याय
यदि देव नारकी और मनुष्योंसे भिन्न जीवोंको तियंच माना जायगा तो सिद्धोंको भी तिर्यच । कहना चाहिये क्योंकि देव नारकी और मनुष्योंसे भिन्न सिद्ध भी हैं ? सो ठीक नहीं । यहाँपर संसारी
जीवोंका प्रकरण चल रहा है इसलिये यहां पर यह अर्थ समझ लेना चाहिये कि देव नारकी और मनुष्योंसे भिन्न जो संसारी जीव हैं वे तिर्यच हैं इसरीतिसे सिद्धोंका ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि वे ५ संसारी नहीं । वार्तिककार तिर्यग्योनि शब्दका स्पष्टार्थ करते हैं
तिरोभावात्तैर्यग्योनिः॥३॥ तिरोभावका दूसरा पर्याय न्यग्भाव और उपवाह्य है और उसका अर्थ बोझ बहन करना वा पास । में आकर सेवा करना है । इसरीतिसे तिर्यंच नाम कर्मके उदयसे जो न्यग्भाव वा उपवाह्यत्व स्वरूप प्राप्त । हो उसका नाम तिर्यग्योनि वा तिथंच है। योनिका अर्थ जन्म है । तियचोंमें जिनका जन्म हो वे तिर्यग्योनि कहे जाते हैं। उनके त्रस स्थावर आदि भेद हैं और वे ऊपर कह दिये जाचुके हैं। शंका
देवादिवत्तदाधारानिर्देश इति चेन्न सर्वलोकव्यापित्वात ॥४॥ जिस तरह देवोंके रहनेका स्थान ऊर्ध्वलोक बतलाया है। मनुष्योंका तिर्यग्लोक और नारकियोंका अधोलोक कहा गया है उसीप्रकार तिर्यचोंके रहनेका भी कोई खास आधार कहना चाहिये । उसका समाधान यह है कि तिर्यचोंमें एकेंद्रियसे लेकर पांचों इद्रियां होती हैं। वे एकेंद्रियादि तियंच समस्त
लोक में रहते हैं इसलिये उनके रहनेका विशेष आधार न होनेसे निर्देश नहीं किया गया । तियच सर्व७ लोकमें किसप्रकार फैले हैं वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
सुक्ष्मवादरभेदात् ॥५॥
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