________________
अध्याय
बरा बाचा
औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः॥२७॥ उपपाद शय्यासे उत्पन्न होनेवाले देव और नारकी तथा मनुष्य इनसे भिन्न-अवशिष्ट सव जीव
तिर्यच हैं। यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि११२७
'औपपादिकमनुष्येभ्यः' यह जो निर्देश किया गया है वह ठीक नहीं क्योंकि यह नियम है जिसमें थोडे स्वर होते हैं उसका द्वंद्वसमासमें निपात वा प्रयोग पहिले होता है । औपपादिक और मनुष्य इनदोनों शब्दोंमें मनुष्य शब्दमें थोडे स्वर हैं और औपपादिक शब्दमें अधिक हैं इसलिये 'औपपादिकमनुष्येभ्यः' यहांपर मनुष्य शब्दका पहिले प्रयोग होना आवश्यक है ? सो ठीक नहीं थोडे स्वरवालेकी अपेक्षा जो अभ्यहित (उत्कृष्ट) होता है वह प्रधान माना जाता है यहांपर मनुष्यकी अपेक्षा औपपादिक अभ्यर्हित है इसलिये सूत्रमें औपपादिक शब्दका ही उल्लेख किया गया है। यहांपर यह शंका न करनी चाहिए कि
औपपादिक क्यों अभ्यर्हित हैं ? क्योंकि औपपादिकोंमें देवोंका अंतर्भाव है तथा मनुष्योंकी अपेक्षा। स्थिति प्रभाव आदिके द्वारा देव अभ्यर्हित-उत्कृष्ट हैं यह ऊपर विस्तारसे वर्णन किया जा चुका है इस | लिये औपपादिक शब्दका मनुष्य शब्दसे पहिले प्रयोग अबाधित है।
उक्तेभ्य औपपादिकमनुष्येभ्योऽन्ये शेषाः॥१॥ उपपाद शय्यासे उत्पन्न होनेवाले देव और नारकी पहिले कह दिये गये । 'प्राङ्मानुषोचरान्मनुष्याः 18|| इस सूत्रसे मनुष्योंका भी व्याख्यान कर दिया गया । इन देव नारकी और मनुष्योंसे भिन्न तिथंच है। शंका
सिद्धप्रसंग इति चेन्न सांसारिकप्रकरणात् ॥२॥
ACANCELEBRUARUECAUGUSAR
TEA%BASCHEMECREGAR-
SAMBABA
ASHRA
-