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________________ अध्याय 90SALASSESASARAMERIERE व्याख्या प्रज्ञप्ति दंडोंमें इस प्रकार लिखा है कि विजयादिनिवासी देव मनुष्य भवको प्राप्त होते है हुए कितनी गति आगति (जाना आना) विजय आदि विमानोंमें करते हैं इस गौतम गणधरके प्रश्न करनेपर भगवान महावीर जिनेंद्रने यह उचर दिया था कि जघन्य रूपसे तो आगमनकी अपेक्षा एक मनुष्य भव धारण करना पडता है और उत्कृष्ट रूपसे गमन आगमनकी अपेक्षा दो मनुष्य भव धारणं करने पडते हैं किंतु जो देव सर्वार्थसिद्धि विमाननिवासी हैं वे वहांसे चयकर उसी भवसे मोक्षचले जाते हैं हुँ इसलिये जिसप्रकार लोकांतिक देव एक ही भव धारण कर मोक्ष चले जाते हैं वैसा विजय आदि अनुत्तर विमानवासी देवोंकेलिये नियम नहीं किंतु विजय आदि चार अनुचर विमानवासी देव दो मनुष्य भव धारण कर मोक्ष जाते हैं इस रीतिसे यहांपर जो प्रश्न था वह दूसरे दुसरे स्वगोंमें होनेवाली उत्पचिकी अपेक्षारहित था इसलिये विजय आदिमें द्विचरमपना आगमविरोधी नहीं हो सकता अतः विजय आदि विमानवासी देव दो मनुष्यभव धारण कर मोक्ष जाते हैं यह बात अबाधित रूपसे सिद्ध हो चुकी ॥२६॥ ऊपर जहांपर जीवके औदयिक भाव कहे गये हैं वहांपर यह उल्लेख किया गया है कि तियंच गति औदयिक भाव है। तथा जहाँपर नारकी आदिकी स्थितिका वर्णन किया गया है वहां 'तिर्यग्यो है निजानां च' इस सूत्रमें तिथंच शब्दका उल्लेख किया गया है । तथा आगे छठे अध्यायमें जहां पर है आस्रवका प्रकरण लिखा गया है वहांपर 'माया तैर्यग्योनस्य' अर्थात् मायाचारी-छल कपट करना तिथंच गतिक आस्रवका कारण है परंतु तियच कौन हैं ? यह वात अभी तक नहीं कही गई इसलिये वे ॥ ११२६ ७ तिथंच कैसे और कौन हैं ? सूत्रकार इसवातका खुलासा करते हैं MERESUMERORISRIESCENERRISHRIRAMMect PALMC-5 POPUR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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