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________________ ब०रा० अध्याप ANDAPSARESOLARS ASHOGAUGEECHNOORBOORORSAURA आर्षविरोध इति चेन्न प्रश्नविशेषापेक्षत्वात् ॥५॥ . विजय आदिमें जो द्विचरमपना माना है वह ठीक नहीं क्योंकि वहांपर त्रिचरमपना अर्थात् तीन है। चार मनुष्यभव धारणकर पीछे मोक्ष जाना होता है ऐसा आगममें कहा है। जहांपर आगममें अंतरकारी प्रकरण है वहांपर यह उल्लेख भी है अनुदिश अनुचर विजय वैजयंत जयंत अपराजित विमानवासी देवोंका जघन्य अंतर वर्षपृथक्त्व | प्रमाण है और उत्कृष्ट अंतर कुछ अधिक दो सागर प्रमाण है इसका खुलासा तात्पर्य यह है-कोई कोई जीव अनुदिश अनुचर आदि विमानोंसे चयकर, मनुष्यपर्याय पाकर और आठ वर्षप्रमाण संयम धारण कर अंतर्मुहूर्त में ही विजय आदि विमानों में उत्पन्न होते हैं इसरीतिसे जघन्य अंतर तो वर्षपृथक्त्वप्रमाण है तथा कोई कोई जीव अनुदिश आदिसे चयकर मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं. वहांपर संयमको आराधन | कर सौधर्म और ऐशान स्वगों में उत्पन्न होते हैं वहांसे चयकर मनुष्यपर्याय पाकर पुनः विजय आदिमें | उत्पन्न होते हैं इसरीतिसे उत्कृष्ट अंतर कुछ आधिक दो सागरप्रमाण है। यहांपर मोक्षके पहिले पहिले तीन बार मनुष्य भव धारण करने के कारण द्विचरमपना जो कहा है वह अयुक्त है क्योंकि आगमसे त्रिच-10 रमपना सिद्ध है और यहाँपर द्विचरमपना माना है इसलिए आगम विरोध है ? सो ठीक नहीं। जहां | जैसा प्रश्न होता है वहां वैसा ही उचर दिया जाता है यदि विशेष प्रश्न होगा तो विशेष उचर और यदि साधारण प्रश्न होगा तो साधारण उत्तर दिया जाता है प्रश्न विशेषकी अपेक्षा आगममें दिचरमपनका ही उल्लेख है और वह इसप्रकार:१-अर्थ सप्रमाण पहिले लिखा जाचुका है। १४२ HSSFROISAPANARASRE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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