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________________ ClicaicRSARO PAGESGE मनुष्यदेहस्य चरमत्वं तेनैव मुक्तिपरिणामोपपत्तेः॥३॥ मनुष्यपर्यायको प्राप्तकर ही देव नारकी और तियच मोक्षलाभ करते हैं, देव नारकी और तियंच पर्यायोंसे मोक्षलाभ नहीं होता इसलिये मनुष्यदेहको ही चरमपना सिद्ध है अन्य किसी पर्यायवर्ती देहॐ को नहीं। शंका एकस्य चरमत्वमिति चेन्नौपचारिकत्वात् ॥४॥ जिस मनुष्यसे साक्षात् मोक्ष हो उसीको चरम मानना ठीक है किंतु मनुष्य भवकी दो देहोंको चरम मानना ठीक नहीं इसलिये मनुष्य भवकी दो देहोंको जो चरम माना है वह अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। जिस देइसे साक्षात मोक्ष प्राप्त हो वह मुख्य चरम है और प्रत्यासत्ति संबंधसे उस चरम देहके समीप रहनेवाला पहिला मनुष्य देह उपचारसे चरम है इसरीतिसे एक मनुष्य देह मुख्यरूपसे और एक उपचारसे | चरम होनेके कारण दोनों मनुष्य देहोंको चरम मानने में कोई आपत्ति नहीं । यदि यहॉपर यह शंका की 12 जाय कि पहिले मनुष्य देइसे संयमके द्वारा विजयादि अनुत्तर विमानोंमें जन्म लेना पडता है उसके बाद । मनुष्य देह धारण करने के बाद मोक्ष प्राप्त होती है इसतिसे देवगतिके व्यवधान पडजानेपर मनुष्य • देह प्रत्यासन्न नहीं हो सकता सो ठीक नहीं। येन नाव्यवधानं तेन व्यवाहितेऽपि वचनप्रामाण्यात्' अर्थात् जिस पदार्थका अवश्य व्यवधान है उसके व्यवधान रहते भी वचन प्रामाण्यसे कार्य हो जाता है, यद्यपि यहांपर देवगतिका व्यवधान है तथापि दोनों मनुष्य देहोंको आगममें चरम कहा गया है इसलिये आ-2 ११२१ 'गम वचनके प्रमाणसे दोनों मनुष्य देहोंको चरम मानना निरापद है। यदि यहांपर यह शंका हो कि HSClerkeBCCBOURURUNGANAGAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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