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________________ BACHEKADASHIBITORSEENERREN सुस्थित प्रभास आदि हैं। व्यंतर अनावृत प्रियदर्शन आदि जम्बूद्वीपके स्वामी हैं। ज्योतिषी देव पांच : अब प्रकारके हैं उनका व्याख्यान ऊपर कर दिया गया। कल्योपपन्न बारह प्रकारके हैं। नवप्रैवेयक आदि । विमानोंका वर्णन पहिले कर दिया जाचुका है। अथवा सात प्रकारके भी देव निकाय हो सकते हैं उनमें 9 छह प्रकारके तो भवनवासी पातालवासी आदि और सातवां प्रकार आकाशोपपन्न है। तथा पांशुतापि ४ १ लवणतापि २ तपनतापि ३ भवनतापि १ सोमकायिक ५यमकायिक ६ वरुणकायिक ७ वैश्रवणका यिक पितृकायिक ९ अनलकायिक १० रिष्टकसम्भव ११ और अरिष्टकसंभव १२ के भेदसे आकाशोपपन्न बारह प्रकारके हैं। इसरीतिसे जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि देवोंके निकाय छह वा सात हो सकते हैं तब ऊपर चार माने गये हैं वह निरर्थक है ? सो ठीक नहीं। लोकांतिक देवोंका कल्पवासीवैमानिक देवोंमें अंतर्भाव होनेसे जिसप्रकार उन्हें वैमानिक ही कहा जाता है अन्य कोई पांचवी उनकी निकाय नहीं मानी उसीप्रकार पातालवासी और आकाशोपपन्न देवोंका व्यंतरोंमें अंतर्भाव है और 9 कल्पवासियोंका वैमानिकोंमें अंतर्भाव है इसलिए व्यंतर और वैमानिक निकायॊम ही अंतर्भाव होनेसे | उनका भिन्न निकाय स्वीकार करना असंगत है इसरीतिसे ऊपर जो चार निकाय माने हैं उनकी हानि नहीं हो सकती॥२३॥ ____ "जिसप्रकार लोकांतिक देवोंका कल्पवासियोंमें अंतर्भाव है" यहाँपर जो दृष्टांत रूपसे लोकांतिक देवोंका उल्लेख किया गया है वे लोकांतिक देव कौन-वगैमें रहते हैं ? सूत्रकार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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