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________________ अध्याय २११५ SHIDASAREKPIRNSSANDESHBGDia आदि देवोंको भी वैमानिक मानना पडेगा क्योंकि क्योंकि नववेयक आदिके समान भवनवासी आदि | । देवोंके रहनेका स्थान भी कल्पोंसे भिन्न होनेके कारण कल्पातीत सिद्ध होगा ? सो ठीक नहीं। इस सूत्रों का "उपर्युपरि"कासम्बन्ध है इसलिये ऊपर ऊपरके ही देव वैमानिक हो सकते हैं नीचे के नहीं । भानवासी आदि देवोंके रहनके स्थान नीचे है इसलिए इनकी कल्पातीत संज्ञा सिद्ध न होने के कारण भवनवासी । || आदिको वैमानिक देव नहीं कहा जा सकता इसलिए यह बात सिद्ध हो चुकी कि अहमिंद्र देव ही 15 || कल्पातीत हैं भवनवासी आदि देव कल्पातीत नहीं कहे जा सकते। l यहाँपर यह शंका न करना चाहिए कि कल्पातीत विमानवासी देव की अहमिंद्र संज्ञा क्यों है ? क्योंकि भवनवासी आदि चारों निकायों से प्रत्येक निकायमें इंद्र सामानिक आदि जो दश दश है भेद कह आये हैं उन दश भेदोंमेंसे कल्पातीत विमानवासी देवोंमें केवल इंद्र भेद ही है, सामानिक आदि भेद नहीं इसलिए कल्पातीत विमानोंके अधिवासी देवोंमें 'अहमिंद्रा, अहमिंद्रः, ऐसी सदा | भावना उदित होती रहनेके कारण वे अहमिंद्र कहे जाते हैं। उनके सिवाय अन्यत्र निकायोंके देवोंमें | इंद्रादि दशों भेद हैं हमालिए उन निकायोंके सब देव अहमिंद्र नहीं होते । यदि कदाचित् यह कहा | जाय कि चतुर्णिकायोपदशानुपपतिः षट्सप्तसंभवादिति चेन्न तत्रैवांतर्भावात लोकांतिकवत् ॥ ॥ . भवनवासी आदि चार निकाय हैं यह जो ऊपर कहा गया है वह ठीक नहीं क्योंकि भवन ! पाताल २ व्यंतर ३ ज्योतिष्क १ कल्पोपपन्न ५ और वैमानिक के भेदसे छह निकायोंका भी संभव हो सकता। है। उनमें भवनवासी दश प्रकारके हैं वे कह दिये गये । पाताल वासी लवणोदादि समुद्रोंमें रहनेवाले 10 १९९५ NAREBOOBARABAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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