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________________ अध्याय ॐ सिद्धि पर्यंत समस्त वैमानिकोंकी स्थितिप्रभावत्यादि सूत्रों अनुचि नहीं आवेगी किंतु कला अर्थात् ६ अत्रेयकसे पहिले अच्युत पर्यंत सगोंकी ही अनुवृचि आवेगी और तब स्थितिप्रभावत्यादि उपर्युक 4. नीन सूत्रों का जो अर्थ है वह सोलह स्वर्गों में ही संघाटेत होगा नायक अनुता आदि विमानोंमें * संघटित न होगा परंतु जिस जगह प्राग्वेय केभ्यः' इत्यादि सूत्र पढा है वह वहीपर पढा जायगाता है तो नव वेयकादिका भी स्थितिप्रभावत्यादि तीनों सूत्रमें संबंध होगा फिर उनका जो अर्थ कहा गया हूँ है वह नवग्रैवेयक आदिमें भी निरवच्छिन्नरूप सिद्ध होगा इसलिए नवोया आदि खिति आदि है 0 अर्थकी सिद्धि के लिए 'प्राग्वेय केभ्यः' इत्यादि सूत्र जहां पढा गया है वहीं उपयुक्त है। अब वार्तिक । । कार कल्पातीत शब्दका विवेचन करते हैं कल्पातीतसिद्धिः परिशेषात् ॥२॥ जब ग्रैवेयक विमानोंसे पहिले पहिलेके विमानों की कल संज्ञा निर्धारित हो चुकी तब शेषके नवग्रैवेयक आदिकी कल्पातीत संज्ञा सुतरां सिद्ध हो गई इसलिए नवगैरेयकको आदि लेकर अनुवा पर्यंत विमानोंकी यहां कल्पातीत संज्ञा समझ लेनी चाहिए। शंका भवनवास्यायतिप्रसंग इति चेत् उपर्युपरीत्यभिसंबंधात् ॥३॥ यदि कल्पसंज्ञक विमानोंसे वाकीके बचे सब विमानों को कल्पातीत माना जायगा तो भवनवासी १-पारिशेषन्यायसे यह समझ लिया जाता है, जैसे-देवदत्त मौटा तो हो रहा है परन्तु दिनमें भोजन नहीं करता है, इससे यह वात सुतरां सिद्ध है कि वह रात्रिमें भोजन कर लेता है अन्यथा मोटा नहीं रह सका। इसीपकार यहां समझना चाहिये। FUROPERISPOTASARITAHARASHRESORRORE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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