SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1046
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बEALISEASOler ...SIDHAN जिनके रहने के स्थान अनेक भिन्न भिन्न देश हों वे व्यंतर कहे जाते हैं। व्यंतरोंका यह अन्वर्थ नाम है। किन्नर आदि आठ भेदोंकी व्यंतर यह सामान्य संज्ञा है। , "...- किन्नरादयस्तहिकल्पाः ॥२॥ . . . . उस व्यंतर निकायके किन्नर किंपुरुष महोरग आदि आठ भेद हैं। नामकर्मोदयविशेषतस्तद्विशेषसंज्ञाः ॥३॥ मूलमें जो देवगति नामकर्म है उसकी उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप भेदोंके उदयसे किन्नर आदि विशेष 1 संज्ञा है । अर्थात् किन्नर'नामकर्मके उदयसे किन्नरमंज्ञा है। किंपुरुष नामकर्मके उदयसे किंपुरुषसंज्ञा है। | महोरग नामकर्मके उदयसे महोरग, गंधर्व नामकर्मके उदयसे गंधर्व, यक्ष नामकर्म के उदयसे यक्ष, राक्षस है नामकर्मके उदयसे राक्षस, भूत नामकर्म के उदयसे भून और पिशाच नामकर्मके उदयसे पिशाचसंज्ञा है। शंका क्रियानिमिचा एवेति चेन्नोक्तत्वात् ॥४॥ 4. ' खोटेनरोंकी जो अभिलाषा करें वे किन्नर हैं । खोटे पुरुषोंको जो चाहें वे किंपुरुष हैं। मांसको जो खावें वे पिशाच हैं इत्यादि क्रियाओंके आधीन किन्नर आदि संज्ञायें हैं नामकर्मनिमिचक नहीं इसलिए ऊपर जो नामकर्मनिमित्तक किन्नर आदि भेद माने गये हैं वह अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। इसका उत्तर ऊपर दे दिया गया है कि उपर्युक्त निंदित क्रियानिमिचक किन्नर आदिको माना.जायगा तो उनके ऊपर अवर्णवाद होगा क्योंकि वे पवित्र वैक्रियिक शरीरके धारक हैं। अपवित्र औदारिक शरीरोंके धारक मनुष्योंकी वे कभी भी इच्छा नहीं कर सकते और न वे मांसका ही भोजन कर सकते WHERAGEvere SPEECHESHARE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy