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________________ अध्याय ०रा० १०२१ हैं इसलिए उपर्युक्त निंदित क्रियानिमित्तक जो किन्नर आदि नामोंको कहा गया है वह सर्वथा मिथ्या है। यदि यहाँपर यह कहा जाय कि लोकमें बहुतसे देवी देवताओंकी मांस मदिरा आदिमें प्रवृत्ति दीख पडती है अर्थात् यह सुना है जाता है कि अमुक देवी बकरा आदिका मांस वा शराब आदिकी बाल लेकर कामना पूर्ण करती हैं इत्यादि सो ठीक नहीं । वे क्रीडाजन्य सुखके निमित्त वैसा कर सकते हैं उनके केवल मानसिक आहार है मांस शराब आदिका खाना पीना उनके बाधित है इसलिए उन्हें मांसभोजी वा मद्यपायी आदि | कहना वा मानना तीन अज्ञान है । इन किन्नर आदि व्यंतरोंके रहने के स्थान कहां हैं ? वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं इस जंबूद्वीपसे तिरछी ओर दक्षिणदिशाके सन्मुख असंख्यात द्वीप और समुद्रोंके बाद खरपृथ्वीभागके ऊपरले हिस्सेमें किन्नर देवोंके स्वामी किन्नरेंद्रका निवासस्थान है। वहांपर उसके असंख्यातलाख नगरोंका वर्णन किया गया है। तथा उसके परिवारस्वरूप चार हजार सामानिक देव, तीन सभा, सात मा प्रकारकी सेना, चार पटरानियां और सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं तथा उत्तरदिशामें पिप | नामका किन्नरोंका इंद्र रहता है और उसका वैभव और परिवार पहिलेके ही समान(किन्नरेंद्र के समान) है। सत्पुरुष अतिश(का)य गीतरति पूर्णभद्र स्व(पति)रूप और काल इन छह इंद्रोंके भी दक्षिणदिशामें असंख्यात लाख रहनेके नगर हैं तथा महापुरुष महाकाय गीतयश मणिभद्र अप्रतिरूप और महाकाल | इन छह इंद्रोंका निवासस्थान उत्तरदिशामें है और उनके रहनेके स्थान नगर असंख्यात लाख हैं। । . राक्षसोंके इंद्र भीमके दक्षिण दिशामें पंकबहुलभागमें असंख्यात लाख नगर हैं । उत्तर दिशामें १२९ ASHOPPINEAREKOHAMMADR १०२१ A
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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