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अर्थात् भोजन के
समय में ( जैन. गृहस्थ ) घरका
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" दरवाजा बंध न करे, क्योंकि जिनेश्वर भगवान्ने श्रावकं " ( जैन गृहस्थ ) के लिये अनुकंपा दानका कहीं निषेध नहीं " किया (१) भयानक संसारमें दुःखोंसे पीडित प्राणि समुदायपर द्रव्यं और भावसे समान दयाभाव रखे (२) श्री पंचमांगादिकमें " जहां श्रावकका वर्णन किया है वहां "अवगुंठिअ दुवारा " " ऐसा पाठ लिखा है, अर्थात् भिक्षु आदिके प्रवेशके वास्ते श्राव " कको हर समय दरवाजा खुला रखना चाहिये । दीनोंका उद्धार " तो संवत्सरी दानमें तीर्थंकरोंने भी किया है । कदापि काल दुष्काल पड़ जावे तत्र तो श्रावक विशेष करके दानादिसे दीनोंका उद्धार करे। आगे विक्रम संवत् १३२५ में भद्रेसर " ग्राम निवासी श्रीमाल जातिके जैन गृहस्थ शाह झगड़ने ११२ " दानशालायें दान देनेके लिये खोली थीं ।" इत्यादि [ जैनतत्त्वादर्श पृष्ठ. ४५७-५८ ]
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हमे आशा है कि, जैनतत्त्वादर्श के सप्रमाण उक्त लेखको ध्यान पूर्वक पढ़ने से हमारे पाठक अवश्य ही किसी नतीजे पर पहुंच जायँगे । स्वामीजीका जैनोंके विषयमें परमत द्वेषी और निर्दयी आदि लिखना सभ्यता और सत्यताको सीमाका कितना पालन कर रहा है इसकी मीमांसा वे अब बहुत ही सुगमता से कर सकेंगे ! हम अपने पाठकोंसे इतनां निवेदन और भी करते हैं कि, जनसाधारणकी सेवाका शंख फूकनेवाले स्वामीजी महाराजके नीचे लिखे हुए दयामय एक उपदेशको वे अवश्य पढ़ें ।
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सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ २७८ में स्वामीजी लिखते हैं कि - " परंतु जो ब्राह्मण नहीं हों उनका न ब्राह्मण नाम और न उनकी सेवा करने योग्य है " ॥