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मांगने आयों को देना चाहिये; क्योंकि दान देना यह गृहस्थका
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"धर्म ही है. तथा अन्य कोई महान् पुरुष घरमें आवे तो
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" ( जैन गृहस्थ, ) उसको आसन देना, सन्मुख जाना, उठकर
“ खड़े होना आदिसे उचित सत्कार करे. तथा अन्यधर्मवाला
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" किसी में पडा होवे तो उसका उद्धार करे । दुःखी " जीवोंपर दया करे. ( घरमें आनेपर ) अन्य मतवालोंसे काम काज पूछे, जैसे कि आपका आना किस प्रयोजनके वास्ते हुआ है ? पीछे वह जो काम बतावे उसको योग्य " समझे तो पूरा करे. तथा दुःखी, अनाथ, अंधा, वहरा, रोगी आदि दीन लोगोंकी दीनताको अपनी शक्तिके अनुसार दूर करे. " इत्यादि : [ जैनतत्त्वादर्श पृष्ठ ४५४ ]
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इसके आगे सुपात्र प्रभृति दानोंके अवांतर भेदों का वर्णन करते हुए आप लिखते हैं कि - ( जैन गृहस्थ ) " अपनी शक्तिके अनुसार भोजन के समय ( घरमें ) आये हुए " साधर्मीयोंकों अपने साथ भोजन करावे, क्योंकि वे भी पात्र हैं.
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तथा अंधे आदि मांगनेवालों को भी यथाशक्ति देवे, परंतु किसीको निराश न जाने देवे. धर्मकी निंदा न करावे, " कठिन हृदयवाला न बने, भोजन के समय दयावान् ( जैन
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गृहस्थको ) कपाट लगाने न चाहिये, उसमें भी धनवान्को " तो अवश्य ही कपाट नहीं लगाने, आगम ( जैनग्रंथों ) "" में कहा है कि-
" नेव दारं पिहावेई, भुंजमाणो सुसावओ ।
" अणुकंपा जिणिदेहिं, सढाणं न निवारिया ॥१॥ 46 दहूण पाणिनिवह, भीमे भवसायरंमि दुक्खत्तं । " अविसेंस अणुकंप, दुहावि सामत्थओ कुणई ||२||