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स्वामीजीने जिन मधुर शब्दोंसे सत्कार किया है उनकी प्रशंसाके लिए हम लाचार हैं कि, हमारे पास कोई भी शब्द नहीं ! शोक केवल इतना ही है कि, हमारे दुर्भाग्य से स्वामीजी शीघ्र ही संसार चल बसे ! अन्यथा भारतीय धार्मिक समाज में "उनकी कृपासे उत्पन्न हुई शांतिकी ज्वाला निःसंदेह प्रचंड दावानल के स्वरूपको धारण किये विना न रहती ! परंतु क्या किया जावे " देवो हि दुरतिक्रमः " !
कदापि कोई स्वामीजीके उक्त लेखका ( जो कि उन्होंने अन्यमतों और विद्वानों के बारेमें सत्यार्थ प्रकाशमें प्रकाशित किया है. ) यह आशय बतलावे कि " अन्यमतके विद्वानोंका मान करना " इसका इतना ही अर्थ है कि, यदि कोई अन्य मतका विद्वान अपने पास आवे तो उसको अपने पास बिठलाना और उससे आनंद पूर्वक वातचीत करनी, ग्रंथों में उसकी अथवा उसके धर्मकी पेट भरकर निंदा करनेमे कुछ बुराई नहीं ! इसका तात्पर्य तो यह हो सकता है कि, किसी मतके विद्वानको मूंहसे गाली देनी अच्छी नहीं है, लिखकरके तो चाहे जितनी दी जावें उतनी थोड़ी हैं ! अस्तु ! इस प्रकारका ! सम्मान करनेवाले महाशयोंसे तो हमारा मौन ही उत्तरमें निवेदन है !
सज्जनो ! " क्या मनुष्यादिपर दया करके उसका अन्नपानादिसे सत्कार करना और दूसरे मतके विद्वानोका मान करनां दया नहीं है ?" इस कथनसे स्वामीजी जैनोंपर क्या आक्षेप करना चाहते हैं ? यह समझमें नहीं आता ! क्या जैन उक्त कर्मको दया नहीं समझते ? अथवा उनके शास्त्रों में क्या इस कर्मको दया नहीं बतलाया ? ऐसा तो नहीं. क्योंकि, जैनशात्रों में वर्णन किये हुए- सुपात्र, अभय, अनुकंपा, कीर्त्ति और
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